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प्राग्वाट-इतिहास:
[तृतीय
तपागच्छीय श्रीमद् कल्याणविजयगणि दीक्षा वि० सं० १६१६. स्वर्गवास वि० सं० १६५५ के परचाव
गूर्जरभूमि में पलखड़ी नामक नगर में प्राग्वाटज्ञातीय श्रे० आजड़ रहता था। उसका पुत्र जीधर था। जीधर ने संघयात्रा की थी; अतः वह संघवी कहलाता था। सं० जीधर के दो पुत्र थे। दोनों पुत्रों में राजसी वंश-परिवार और प्रसिद्ध अधिक उदार और गुणवान् हुआ। राजसी का पुत्र थिरपाल अति प्रख्यात पुरुष पुरुष थिरपाल
हुआ । अहमदाबाद में इस समय मुहम्मद बेगड़ा राज्य करता था। वह थिरपाल पर अधिक प्रसन्न था । श्रे० थिरपाल को उसने लालपुर की जागीर प्रदान की थी । थिरपाल ने तपागच्छीय श्रीमद् हेमविमलसूरि के सदुपदेश से वि० सं० १५६२ में एक जिनमन्दिर बनाया था । वि० सं० १५७० में हेमविमलसरि ने थिरपाल के अत्याग्रह से मुनि आनन्दविमल को डाभिलाग्राम में सूरिपद प्रदान किया था। सूरिपदमहोत्सव में थिरपाल ने व्यवस्थासंबंधी पूर्ण भाग लिया था। उसी अवसर पर बिम्बप्रतिष्ठोत्सव भी भारी धूम-धाम से किया गया था। थिरपाल के छः पुत्र थे-मोटा, लाला, खीमा, भीमा, करमण और धरमण । छः ही भ्राताओं ने संघयात्रायें की और वे संघपति कहलाये।
__ थिरपाल के चौथे पुत्र संघवी भीमा के पांच पुत्र हुये-सं० हीरा, सं० हरषा, सं० विरमाल, सं० तेजक और एक और । सं० भीमा ने चारों पुत्रों का विवाह करके उनको अपनी जीवितावस्था में ही अलग २ कर दिया कल्याणविजयजी का जन्म और फिर दोनों स्त्री पुरुष स्वर्ग सिधारे । सं० हरषा की स्त्री पूजी की कुक्षि से वि० और दीक्षा
सं० १६०१ आश्विन कृ० ५ सोमवार को एक पुत्र उत्पन्न हुआ और उसका नाम ठाकुरसी रक्खा गया । छः वर्ष की वय में ठाकुरसी को पढ़ने के लिये पाठशाला में भेजा गया। एक समय जगद् गुरु हीरविजयसूरि का लालपुर में शुभागमन हुआ । ठाकुरसी के कुटुम्बीजन हीरविजयसूरि के भक्त थे। उन्होंने प्राचार्यजी का स्वागतोत्सव बड़े धूम-धाम से किया। ठाकुरसी उस समय योग्य अवस्था को पहुँच गया था। हीरविजयसूरि की वैराग्यभरी देशना श्रवण कर उसके हृदय में वैराग्यभावनायें उत्पन्न हो गई। माता, पिता और परिजनों ने ठाकुरसी को बहुत समझाया, लेकिन उसने एक की नहीं सुनी। अंत में थक कर सबने उसको दीक्षा ग्रहण करने की आज्ञा दे दी। इस अन्तर में आचार्य हीरविजयसूरि महेसाणा (महीशानक) नगर को पधार गये थे । ठाकुरसी अपने माता, पिता को साथ लेकर अपने नाना चंपक के घर, जो महेसाणा में ही रहते थे आया । श्रे० चंपक ठाकुरसी की माता पूजी का पिता था। श्रे० चंपक के दो पुत्र सोमदत्त और भीमजी थे। दोनों ही प्राताओं का अपनी बहिन और भाणेज ठाकुरसी पर अगाध प्रेम था। ठाकुरसी को उन्होंने भी बहुत समझाया । परन्तु जब ठाकुरसी ने किसी की नहीं मानी; तब सोमदत्त और भीमजी ने दीक्षामहोत्सव का आयोजन अपने व्यय से किया और बहुत धूम-धाम से वि० सं० १६१६ वैशाख कृ. २ को ठाकुरसी को जगद्गुरु श्रीमद् हीरविजयसरि ने दीक्षा प्रदान की और मुनि कल्याणविजय आपका नाम रक्खा ।