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खण्ड]
श्री जैन श्रमणसंघ में हुये महाप्रभावक आचार्य और साधु-तपागच्छीय श्रीमद् हेमविमलसूरि:
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हेमविमलसूरि की निश्रा में रहने वाले साधु शुद्ध साध्वाचारी एवं प्रखर पंडित और शास्त्रों के ज्ञाता होते थे। आपके शिष्य-समुदाय ने अनेक नवीन ग्रंथ, धूशियाँ, कथापुस्तकें संस्कृत-प्राकृत-भाषाओं में लिखी हैं।
जिनमाणिक्यमुनि, हर्षकुलगणि आदि आपके प्रखर विद्वान् शिष्य थे। आपके शिष्यहभावमल शाखा वर्ग की विशेषता शुद्ध साध्वाचार की थी; अतः आपके नाम पर विमलशाखा पड़ गई।
आपके साधुओं को लोग विमलशाखीय कह कर ही संबोधित करते थे। आपके समय में तपगच्छ में कुतुबपुरा, कमलकलशा और पालणपुरा ये तीन शाखायें और पड़ीं । संक्षेप में कि आपके समय में शुद्ध साध्वाचार का पालन करने के पक्ष में बड़े २ प्रयत्न हुये और फलतः कई एक शुद्धाचारी मतों की उत्पत्ति भी हुई।
कडवामती नाडूलाईवासी नागरज्ञातीय कडूवा नामक व्यक्ति का वि० सं० १५१४ में १६ वर्ष की वय में अहमदाबाद के आगमीया पन्यास हरिकीर्ति से मिलाप हुआ । कडूवा का मन शास्त्राभ्यास करके साधुदीक्षा ग्रहण करने का हुआ, परन्तु गुरु के मुख से यह श्रवण करके कि वर्तमान में शास्त्रोक्त विधि से साधु-दीक्षा पल सके संभव नहीं है; अतः उसने साधुध्यान में श्रावक के वेष में ही साधुभावपूर्वक रहकर विहार करना प्रारम्भ किया। उसने वि० सं० १५६२ में कडकमत की स्थापना की और इस प्रकार त्रयस्तुतिकमत की आगमोक्त प्रथा का पुनः प्रादुर्भाव किया ।
बीजामती वि० सं० १५७० में बीजा ने लुकामत का त्याग करके अपना अलग शुद्धाचार के पालन करने में तत्पर रहने वाला मत स्थापित किया और वह मत बीजामत कहलाया ।*
पार्श्वचन्द्रगच्छ वि० सं० १५७२ में तपागच्छीय नागोरीशाखीय श्रीमद् पार्श्वचन्द्रसरि ने शुद्ध साध्वाचार के पालन करने वाले पार्श्वचन्द्रगच्छ की स्थापना की । इस प्रकार हम देख सकते हैं कि हेमविमलसरि का समय शुद्धसाध्वाचार के लिये की गई क्रांति के लिये प्रसिद्ध रहा है ।*
वि० सं० १५८३ में हेमविमलसरि का चातुर्मास विलासनगर में था। सूरि आनन्दविमल को आपने वटपल्ली से बुलवा कर गच्छभार संभलाना चाहा, लेकिन उन्होंने अस्वीकार किया। अंत में सौभाग्यहर्षमुरि को
गच्छभार सौंपा और इस प्रकार शुद्धाचार का पालन करते हुये तथा प्रचार करते हुये स्वर्गारोहण
आप वि० सं० १५८४ आश्विन शु०१३ को स्वर्गवासी हुये । आपने 'सूयगडांगसूत्र' पर दीपिका और 'मृगापुत्र-चौपाई' (सज्झाय) लिखी।
जै० गुरु क० मा० २०७४३,७४४। जै० सा० सं० इति० ० ५१७-१८-१६, ५०६ जै० गु० ० भा० ३ खं०१० ५.३ (६५)। जै० ए०रा० मा०.०३२ (टिप्पणी)। त० श्रवंश-वृत "
'तदानौ वि० द्वाषष्ठयधिक पंचदशशत १५६२ वर्षे "सम्प्रति साधवो न दृग्पथमायाती" त्यादिपरूपण एकुटुकनाम्नो गृहस्थात् त्रिस्तुतिकमतवासितोत् कटुकनाम्ना मतोल चि॥ तथा वि० सात्यधिपचदशशत १५७० वर्षे ल कामतानित्य बाजास्यवेषीत