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: प्राग्वाट-इतिहास :
[तृतीय
लालपुर का ठक्कुर श्रेष्ठि थिरपाल जो प्राग्वाटज्ञातीय था, आपका बड़ा भक्त था। उसने हेमविमलसरि का वि० सं० १५६३ में लालपुर चातुर्मास करवाया और समस्त व्यय उसने ही किया तथा गुरु के उपदेश से
उसने एक जिनालय बनवाया और उसकी प्रतिष्ठा महोत्सवपूर्वक गुरु के हाथों सुरिमंत्राराधना
करवाई। इसी अवसर पर हेमविमलसरि ने सरिमन्त्र की भी आराधना की थी। वि० सं० १५७० में डाभिला नामक ग्राम में आपश्री ने विद्वान् एवं प्रखर तेजस्वी मुनि श्रानंदविमल को प्राचार्यपद प्रदान किया । इस महोत्सव का व्यय खंभात के सोनी जीवा जागा ने बड़ी भाव-भक्तिपूर्वक किया । श्रेष्ठि आनंदविमल मुनि को थिरपाल आनंदविमलसूरि का बड़ा भक्त था। आचार्यपद के दिलाने में उसने अधिक प्राचार्यपद
प्रयत्न और श्रम किया था। आप शुद्ध साध्वाचार के पोषक एवं पालक थे। आपश्री ने अपने जीवन में जिन २ को साधु-दीक्षा दी अथवा वाचक, उपध्याय, पंडितपद प्रदान किये, उनकी साध्वाचार की दृष्टि से पूरी परीक्षा लेकर ही उनको उनकी योग्यतानुसार पद प्रदान किये थे।
वि० सं० १५७२ में आप विहार करते हुए कर्पटवाणिज्य अर्थात् कपड़वंज नामक ग्राम में पधारे । वहाँ के संघ ने आपका प्रवेशोत्सव अत्यन्त वैभव एवं शोभा के साथ में किया। इस समय अहमदाबाद में महमूदकपड़वंज ग्राम में प्रवेशो- बेगड़ा का पुत्र मुजफ्फर द्वितीय बादशाह था। उसने जब इस शाही प्रवेशोत्सव के त्सव और बादशाह को ईर्ष्या विषय में अत्यन्त प्रसंशायें सुनी तो उसने मरिजी को बंदी करने की आज्ञा दी । मूरिजी बादशाह का प्रकोप श्रवण करके सोजीत्रा होते हुये खंभात पहुँच गये। बादशाह के कर्मचारियों ने सूरिजी को वहाँ बंदी बना लिया। संघ से बारह हजार रुपिया लेकर उनको पुनः मुक्त किया। सूरिजी ने सरि-मंत्र का आराधन किया और उन्होंने पं० हर्षकुलगणि, पं० संघहर्षगणि, पं० कुशलसंयमगणि और शीघ्रकवि पं० शुभशीलगणि को बादशाह मुजफ्फर की राज-सभा में भेजे। बादशाह उस समय चांपानेरदुर्ग में था। ये चारों राजसभा में पहुँचे और बादशाह को अपनी विद्वत्ता एवं काव्यशक्तियों से मुग्ध किया। बादशाह ने इनका बड़ा सम्मान किया और बारह हजार रुपयों को वापिस खंभात के संघ को लौटाने की आज्ञा दी तथा हेमविमलसूरि को वंदना लिख कर भिजवाई। - वि० सं० १५७८ में आपने पत्तन में चातुर्मास किया तथा तत्पश्चात् दो चातुर्मास वहाँ और किये । श्रे० दो० गोपाक ने आपश्री के द्वारा जिनपट्ट प्रतिष्ठित करवाये । खंभात में प्रतिष्ठोत्सव किया तथा विद्यानगर में को० सायर श्रीपाल अन्य प्रतिष्ठितकार्य और द्वारा विनिर्मित चैत्यादि की प्रतिष्ठा की। हेमविमलसरि की व्याख्यानकला अमित आपकी शुद्ध क्रियाशीलता प्रभावक थी। आपके सहवास का भी अन्य साधु एवं मुनियों पर भी भारी प्रभाव पड़ता का प्रभाव
था। अन्य मतानुयायी साधु भी आपकी मुक्तकंठ से प्रशंसा करते थे । लुकामतानुयायी ऋषि हाना, ऋषि श्रीपति, ऋषि गणपति ने अपना मत छोड़ कर हेमविमलसरि की निश्रा में शुद्धसाध्वाचार ग्रहण किया था। आपने अपने जीवन में ५०० साधु-दीक्षायें दी थीं।
जै० गु० क० भा०२ पृ० ७४३ जै० ए०रा० माना० भा०१ पृ० ३२,३३.