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________________ :: प्राग्वाट - इतिहास :: जैनधर्म में ज्ञाति विशेष का कोई महत्त्व नहीं, उसके कार्य एवं तपविशेष का 'महत्त्व है । इसको स्पष्ट करते . हुये 'उत्तराध्ययनसूत्र' के १२ वें अध्ययन की ३७ वीं गाथा में कहा गया है :'सक्ख खुदीसह तवो विसेसो न दीसई जाइविसेस कोई । ६] सोवागपुत्तं हरिएससाहुँ, जस्सेरिसा इडि महाणुभागा ॥५७॥ उपर्युक्त उद्धरणों से ज्ञातिवादसम्बन्धी जैन विचारधारा का भलीभांति परिचय मिल जाता है । जैनदर्शन का 'कर्मवाद - सिद्धान्त' बहुत ही महत्त्वपूर्ण है । ईश्वर- कर्तृत्व का विरोधी होने से जैनदर्शन प्राणीमात्र में रही हुई विभिन्नता का कारण उनके किये हुये शुभाशुभ कर्मों को ही मानता है । कर्म- सिद्धान्त के सम्बन्ध में जितना विशाल जैन साहित्य है, संसार भर के किसी भी दार्शनिक साहित्य में वैसा नहीं मिलेगा । जैनदर्शन में कर्मों का वर्गीकरण आठ नामों से किया गया है। कर्म तो असंख्य हैं और उनके फल भी अनन्त हैं । पर साधारण मनुष्य इतनी सूक्ष्मता में जा नहीं सकता, अतः कर्मसिद्धान्त को बुद्धिगम्य बनाने के लिये उसके स्थूल आठ भेद कर दिये गये हैं, जिनमें गोत्रकर्म सातवां है । इसके दो भेद उच्च और नीच माने गये हैं। और उनमें से उन दोनों के आवान्तर आठ-आठ भेद हैं। यहां गोत्र की उच्चता नीचता का सम्बन्ध ज्ञाति, कुल, बल, तप, ऐश्वर्य, श्रुत, लाभ और रूप इन आठों से सम्बन्धित कहा गया है । अर्थात् — इन आठों बातों में जो उत्तम है वह उच्च गोत्र का और अधम है वह नीच गोत्र का होता है । पर गोत्र के उच्चारण का अभिमान करने वाला अभिमान करने का फल भविष्य में नीच गोत्र पाता बतलाया गया है । इसलिये ज्ञाति, कुल और गोत्र का मद जैनधर्म में सर्वथा त्याज्य बतलाया गया है । कहा गया है ऐसी कोई ज्ञाति, योनि और कुल नहीं जिसमें इस जीव ने जन्म धारण नहीं किया हो । उच्च और नीच गोत्र में प्रत्येक जीव अनेक बार जन्मा है । इसलिये इनमें शक्ति और अभिमान करना अयोग्य है एवं उच्च और नीच गोत्र की प्राप्ति से रुष्ट और तुष्ट भी नहीं होना चाहिए । इतिहाससम्बन्धी जैनविचारधारा की कुछ झांकी देने के पश्चात् अब जैनागमों में ज्ञाति, कुल और गोत्रों के सम्बन्ध में जो कुछ उल्लेख मेरे अवलोकन में श्राये हैं, उन्हें यहां दे दिये जा रहे हैं। साथ ही इन शब्दों के सम्बन्ध में भी स्पष्टीकरण कर दिया जा रहा है । किसी भी व्यक्ति की पहिचान उसके ज्ञाति, कुल, गोत्र एवं नाम के द्वारा की जाती है । 'ज्ञाति' शब्द का उद्गम 'जन्म' से है और उसका सम्बन्ध मातृ-पक्ष से माना गया है। जन्म से सम्बन्धित होने के कारण यह शब्द २. महाभारत में भी कहा है : शूद्रोऽपि शीलसम्पन्न गुणवान् ब्राह्मणो भवेत् । ब्राह्मणोऽपि क्रियाहीनः शुद्रादप्यधमोऽभवत् ॥ शूद्रो ब्राह्मणतामेति ब्राह्मणश्चेति शूद्रताम् । क्षत्रियाज्जातमेवं ही विद्याद्वैश्यान्त्यजस्तथैव च ॥ इस सम्बन्ध में ब्राह्मणग्रंथों के अन्य मंतव्यों को जानने के लिये 'भारतवर्ष में ज्ञाति-भेद' नामक ग्रंथ के पृ० १४, ३५, ३६, ५३ आदि देखने चाहिए। यह ग्रंथ बहुत ही महत्वपूर्ण जानकारी देता है । श्राचार्य क्षितिमोहनसेन ने इसको लिखा है । 'अभिनव भारतीय ग्रंथमाला' नं० १७१६०. हरिसंन रोड, कलकत्ता से प्राप्य है । 'आचारांगसूत्र' के द्वितीय अध्ययन के तृतीय उद्देशक का सूत्र १, २, ३ . ३. जननः ज्ञातिः जायन्ते जन्तवो अस्यामिति ज्ञातिः (अभिधान - राजेन्द्रकोष) ४. ज्ञातिर्गुणवान् मातृकत्वं (स्थानांगसूत्रवृत्ति) । मातृसमुत्था ज्ञातिरिति (सूत्रकृतांग)
SR No.007259
Book TitlePragvat Itihas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherPragvat Itihas Prakashak Samiti
Publication Year1953
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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