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________________ : भूमिका :: का विकास कब-कब और किन-किन कारणों से हुआ, इसके सम्बन्ध में जानने के लिए जैन धर्म और ज्ञातिवाद पर तत्कालीन कोई साधन नहीं है। परवर्ती जैन ग्रंथों में इस विषय की जो अनुश्रुतियां मिलती हैं, उसी पर संतोष करना पड़ता है । पर सौभाग्यवश अंतिम तीर्थकर भगवान महावीर की वाणी जैनागमों में संकलित की गई वह हमें आज उपलब्ध है। यद्यपि वह मूलरूप से पूर्णरूपेण प्राप्त नहीं है, फिर भी जो कुछ अंश संकलित किया गया है उसमें हमें जैनधर्म और भगवान् महावीर के ज्ञाति और वर्ण के सम्बन्ध में क्या विचार थे और उस जमाने में कुलों और गोत्रों का कितना महत्त्व था, कौन २ से कुल एवं गोत्र प्रसिद्ध थे इन सर्व वातों की जानकारी मिल जाती है। इसलिये सर्व प्रथम इस सम्बन्ध में जो सूचनायें हमें जैनागमों से एवं अन्य प्राचीन जैन ग्रन्थों से मिलती हैं उन्हीं को यहाँ उपस्थित किया जा रहा है। जैनागमों के अनुशीलन से यह अत्यन्त स्पष्ट है कि जैन संस्कृति में व्यक्ति का महत्त्व उसके जन्मजात कुल, वंश, गोत्र आदि बाह्य बातों से नहीं कुँता जाकर उसके शीलादि गुणों से कँता गया है। ब्राह्मणज्ञाति का होने पर भी जो क्रोधादि दोषों से युक्त है वह ज्ञाति और विद्या दोनों से दीन यावत्पापक्षेत्र माना गया है। 'उत्तरभ्ययनसूत्र' के बारहवें अध्ययन की १४ वीं गाथा इसको अत्यन्त स्पष्ट करती है: 'कोहो य माणो य वहो य जेसि, मोसं अदत्तं च परिग्गहं च । ते माहणा जाइविज्जा विहूणा, ताई च तु खेचाई सुपावयाई' ॥१४॥ 'सूत्रकृतांगसूत्र' में कहा गया है कि ज्ञाति, कुल मनुष्य की आत्मा की रक्षा नहीं कर सकते, सत् शान और सदाचरण ही रक्षा करता है । अतः ज्ञाति और कुल का अभिमान व्यर्थ है। 'न तस्स जाई व कुलं व ताणं, गएणत्थ विज्जाचरणं सुचिएणं णिक्खम्म से सेवइऽगारिकम्म, ण से पारए होइ विमोयणाये ॥ 'उत्तराध्ययनसूत्र' के पच्चीसवें अध्ययन में बहुत ही सष्ट रूप से कहा गया है कि ब्राह्मण आदि नाम किसी बाह्य क्रिया पर माश्रित नहीं, अभ्यंतरित गुणों पर आश्रित है। ब्रामण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये सभी अपने व्य कर्मों के द्वारा अभिहित होते हैं। . 'न वि मुण्डिएण समणो, न ओंकारेण बम्भणो । न मुणी रएणवासेणं, कुसचीरेण न तावसो ॥३१॥ ___ समयाए समणो होइ, बम्भचेरेण बम्मणो । नाणेण य मुखी होइ, तपेण होइ ताबसो ॥३२॥ काखा चम्मखो होइ, कम्मुणा होइ खतिम्रो । वईसो कम्मणा होइ, सुदो हवइ कम्मुणा ॥३३॥ १.महाभारत में 'उत्तराध्ययन' के समकक्ष ही विचार मिलते हैं। शांतिपर्व, वनपर्व, अनुशासनपर्व भादि में ब्राह्मण किन २ कार्यों से होता है और किन कार्यों को करने से ब्राह्मण शद्र हो जाता है और शुद्र मामण हो जाता है उसकी अच्छी व्याख्या मिलती है। यहाँ उसके दो चार श्लोक ही दिये जाते है: सत्यं दानं क्षमा शीलमानृतं तपो घृणा । दृष्यन्ते पत्र राजेन्द्र स बामण इति स्मृतः॥ शौचेन सततं युक्तः सदाचारसमन्वितः । सानुकोषश्च भूतेषु तद्विजातिषु लक्षणम् ।। न कुभ्येच न प्रहृष्येच मानितोऽमानितश्च यः सर्वभूतेष्वभयदस्तं देवा ब्राह्मणं विदुः ।। जीवितं यस्य धर्मार्थ धर्मोहर्यर्थमेव च। अहोरात्राच पुण्यार्थ तं देवा ब्राह्मण विदुः॥ निरामिषमनारंभ निर्नमस्कारमस्तुतिम् । निमुक्तं बंधनैः सर्वैस्तं देवा बाह्मणं विदुः ।। ऐमिस्तु कर्मभिर्देवि सुभेराचरितस्थिता । शद्रो ब्राह्मणता याति वैश्य ब्राह्मणता बजेत् ॥ ऐतै कर्मफले दैवी न्यूनज्ञाति कुलोद्भवः । शद्रोऽप्यागमसम्पषो द्विजो भवति संस्कृतः।।
SR No.007259
Book TitlePragvat Itihas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherPragvat Itihas Prakashak Samiti
Publication Year1953
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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