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:: प्राग्वाट-इतिहास ::
सेरों खून बढ़ जाता है। उसके मुख से बरबस ये शब्द निकल पड़ते हैं कि इस अनुपम कलाकृति के निर्माता धन्य हैं, कृतपुण्य हैं, उनका जीवन सफल है, जिन्होंने अपनी धार्मिक भावना का मूर्तरूप इस अर्बुदाचल पर्वत पर इस सुन्दर रूप में प्रस्थापित किया। बड़े २ सम्राट् , राजा, महाराजा जो कार्य नहीं कर पाये, वह इनकी सूझ-बूझ ने कर दिखाया । अपने ऐश और आराम के लिये तो सभी ने अपनी शक्ति के अनुसार कला को प्रोत्साहन दिया; पर सार्वजनिक भक्ति के प्रेरणास्थल इन जिनालयों का निर्माण करके उन्होंने शताब्दियों तक जनता की भक्तिभावना के अभिवृद्धि का यह साधन उपस्थित कर दिया। भारतीय शिल्पकला के ये जिनालय उज्ज्वल प्रतीक हैं। इनसे प्राग्वाटवंश का ही नहीं, समस्त भारत का मुख उज्ज्वल हुआ है।
इन अनुपम शिल्पकेन्द्रों की प्रेरणा ने परवर्ती शिल्प में एक आदर्श उपस्थित कर दिया। इसका अनुकरण अनेक स्थानों में हुआ और उसके द्वारा भारतीय शिल्प के समुत्थान में बड़ा सुयोग मिल सका। ____ मंत्रीश्वर वस्तुपाल तेजपाल की प्रतिभा बहुमुखी थी। सौभाग्यवश उनके समकालीन और थोड़े वर्षों बाद में ही लिखे गये ग्रंथों में उनके उस महान् व्यक्तित्व का परिचय सुरक्षित है। विमल के सम्बन्ध में समकालीन तो नहीं; पर सोलहवीं शताब्दी में 'विमलचरित्र' और 'विमलप्रबन्ध' और पीछे 'विमलरास' विमलशलोको' आदि रचनाओं का निर्माण हुआ। वस्तुपाल की साहित्यिक क्षेत्र में, राजनैतिक और धार्मिक क्षेत्रों में जो देन है उसके सम्बन्ध में अच्छी सामग्री प्रकाश में आ चुकी है । वस्तुपाल के स्वयं निर्मित 'नरनारायणानन्दकाव्य' और उनके माश्रित कवियों और जैनाचार्यो के ग्रंथ भी प्रकाश में आ चुके हैं। हिन्दी में अभी उनके सम्बन्ध में प्राप्त सब सामग्री के आधार से लिखा हुआ विस्तृत परिचय प्रकाशित नहीं हुआ यह खेद का विषय है। लोदाजी ने प्रस्तुत इतिहास में संक्षिप्त परिचय दिया ही है। मैं उनसे अनुरोध करूंगा कि वे वस्तुपाल तेजपाल सम्बन्धी स्वतंत्र ग्रंथ तैयार कर शीघ्र ही प्रकाश में लावें । सामग्री बहुत है। उन सब का अध्ययन करके साररूप से वस्तुपाल के व्यक्तित्व को भलीभांति प्रकाश में लाने के लिये हिन्दी में यह ग्रंथ प्रकाशित होने की नितान्त आवश्यकता है।
प्राग्वाटज्ञाति के अन्य कवियों में कविचक्रवर्ती श्रीपाल, उनका पौत्र विजयपाल, दमयन्तीचम्पू' के रचयिता पण्डपाल, समयसुन्दर और ऋषभदास बहुत ही उल्लेखनीय हैं । इसी प्रकार उल्लेखनीय जैन मन्दिरों के निर्माता धरणाशाह, सोमजी शिवाका कार्य भी बहुत ही प्रशस्त है । इस वंश के अनेक व्यक्तियों ने जैनधर्म, साहित्य-कला की विविध सेवायें की, जिनका उल्लेख प्रस्तुत इतिहास में बड़े श्रम के साथ संग्रह किया गया है। अतः मुझे इस वंश की गरिमा के सम्बन्ध में अधिक कहने की आवश्यकता प्रतीत नहीं होती। . मैं जैनधर्म और ज्ञातिवाद, जैनागमों में प्राचीन कुलों एवं गोत्रों के उल्लेख और वर्तमान जैन श्वेताम्बर शातियों की, श्वेताम्बरवंशों की स्थापना एवं समयादि के विषयों में कुछ प्रकाश डालना आवश्यक समझता हूँ। इसलिये अपने मूल विषय पर आगे की पंक्तियों में कुछ सामग्री उपस्थित करने का प्रयत्न कर रहा हूँ। आशा है इससे प्रस्तुत इतिहास की पृष्ठभूमि के समझने में बड़ी सुगमता उपस्थित हो जावेगी। भूमिका अधिक लम्बी नहीं हो, इसलिये संक्षेप में ही अपने विचार प्रस्तुत कर रहा हूं।
जैन धर्म के प्रचारक इस अवसर्पिणी में चौवीस तीर्थङ्कर हो गये हैं। उनमें से तेईस महापुरुषों की वाणियां हमें अब प्राप्त नहीं हैं। इसलिये उनके समय में ज्ञातिवाद की मान्यता किस रूप में थी और ज्ञातियाँ एवं गोत्रों