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________________ মুলা 'प्रज्ञाप्रकर्ष प्राग्वाटे, उपकेशे विपुलं धनम् । श्रीमालेषु उत्तम रूपं, शेषेषु नियता गुणाः' ॥२६॥ 'पाबंप्रतिज्ञानिर्वाही, द्वितीयं प्रकृतिः स्थिरा। तृतीयं प्रौदवचनं, चतुः प्रज्ञाप्रकर्षवान् ॥३६८॥ पंचमं च प्रपंचज्ञः षष्टं प्रबलमानसम् । सप्तमं प्रभुताकांक्षी, प्राग्वाटे पुटसप्तकम् ॥३६६॥ -(विमलचरित्र) 'रणि राउलि सूरा सदा, देवी अंबाविप्रमाण; पोरवाड़ प्रगट्टमन, मरणि न मूकइ मांणः ।।' -(लावण्यसमयरचित विमलप्रपंच) जैन शातियों का प्राचीन इतिहास बहुत कुछ तिमिराच्छन्न है। उसको प्रकाश में लाने का जो भी प्रपत्र किया जाय आवश्यक, उपयोगी और सराहनीय है। प्रस्तुत प्राग्वाटज्ञाति का इतिहास इस दिशा में किये गये प्रयाहों में बहुत ही उल्लेखनीय है। श्रीयुत् लोढ़ाजी ने इसके लिखने में बहुत श्रम किया है। कविता के रसप्रद क्षेत्र से का शुष्क इतिहासक्षेत्र की ओर कैसे घुमाव हो गया यह आश्चर्य का विषय है। जिन व्यक्तियों की प्रेरणा से वे इस कार्य की ओर झुके वे अवश्य ही साधुवाद के पात्र हैं । श्वेताम्बर जैन ज्ञातियों में प्राग्वाट अर्थात् पौरवाड़ बहुत ही गौरवशालिनी ज्ञाति है। इस ज्ञाति में ऐसे-ऐसे उज्ज्वल और तेजस्वी रत्न उत्पन्न हुए, जिनकी गौरवगरिमा को स्मरण करते ही नवस्फूर्ति और चैतन्य का संचार होता है । विविध क्षेत्रों में इस ज्ञाति के महापुरुषों ने जो अद्भुत व्यक्तित्व-प्रकाशित किया वह जैनज्ञातियों के इतिहास में स्वर्णाचरों से अंकित करने योग्य हैं। राजनैतिक और धार्मिक क्षेत्रों एवं कला-उन्नयन के अतिरिक्त साहित्य-क्षेत्र में भी उनकी प्रतिभा जाज्वल्यमान है । मंत्रीश्वर विमल के वंश ने गुजरात के नवनिर्माण में जो अद्भुत कार्य किया वह अनुपम है ही, पर वस्तुपाल ने तो प्राग्वाटवंश के गौरव को इतना समुज्ज्वल बना दिशा कि जैन इतिहास में ही नहीं, भारतीय इतिहास में उनके जैसा प्रखर व्यक्तित्व खोजने पर भी नजर नहीं आता। विमल और वस्तपाल इन दोनों की अमर कीर्ति विमलवसहि' और 'लुणवसहि' नामक जिनालयों से विश्वविश्रुत हो चुकी है। कोई भी कला-प्रेमी जब वहां पहुँचता है तो उसके शरीर में जो प्रफुल्लता व्याप्त होती है उससे मानों
SR No.007259
Book TitlePragvat Itihas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherPragvat Itihas Prakashak Samiti
Publication Year1953
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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