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खण्ड ] :: न्यायोपार्जित द्रव्य से मंदिर तीर्थादि में निर्माण- जीर्णोद्धार कराने वाले प्रा०ज्ञा० सद्गृहस्थ-मं० मंडलिक :: [ २५३ पेड़ का परिवार और सं० मंडलिक
पेथड़ की स्त्री का नाम सूहवदेवी था । सुहवदेवी के पद्म नाम का पुत्र था । पद्म का पुत्र लाडण हुआ । लाडण का पुत्र अल्हणसिंह था । पेथड़ जैसा धर्मात्मा एवं महान् सद्गुणी और परोपकारी श्रावक था, वैसी ही गुणवती उसकी पतिपरायण स्त्री और पुत्र पद्म था । पद्म सचमुच ही पद्म के समान निर्मलात्मा था । दोनों पति-पत्नी अत्यन्त उदारमना और धर्मप्रेमी थे, तब ही तो उनके पुत्र, पौत्र और प्रपौत्र भी एक से एक बढ़कर धर्मानुरागी, परोपकारी और पुण्यशाली थे । आल्हणसिंह की स्त्री उमादेवी की कुक्षी से मण्डलिक का जन्म हुआ था । यह भी अपने पितामह के सदृश यशस्वी और कीर्त्तिशाली हुआ । वि० सं० १४६८ में गूर्जर भूमि में दुष्काल पड़ा, उस समय इसने गरीबों को अन्न और चुधितों को अन्न- भोजन दे कर मरने से बचाया । इसने श्रीमद् विजयानन्दसूरि के सदुपदेश से अनेक मन्दिर और धर्मशालायें बनवाई तथा अनेक स्वनिर्मित जिनालयों में और अन्य धर्मस्थानों और मन्दिरों में जिनबिम्बों की स्थापनायें कीं । रेवत और अबु दतीर्थादि प्रमुख तीर्थों में जीर्णोद्धारकार्य करवाया, शास्त्र लिखवाये तथा अनेक सुकृत के कार्य किये। वि० सं० १४७७ में शत्रुंजयमहातीर्थ के लिये भारी संघ निकाल कर तीर्थ-दर्शन किये और स्वामीवात्सल्य करके संघ पूजा की।
इसका पुत्र दाइया और ढाइया का पुत्र विजित हुआ । विजित की स्त्री मणकाई थी । मणकाई के तीन प्रसिद्ध पुत्र हुये, पर्वत, डूंगर और नरवद ।
'निजमनुजभवं यः, सार्थकं श्रावककार विहितगुरुसपर्यः पालयन् सधिपत्यं' । कल सकल कला सरकौशली निकलंकः । पुनरपि षड़काषीद् यो हि यात्रास्तथैव' ॥ ११ ॥ 'गोत्रे ऽत्रैवाद्यात्पबि, भीमसाधु विधिप्सितं । यं पित्तलमयं हेमदृढ़संधिमकारयत् ॥८॥ 'तत्तनयः पद्माह्न स्तदुद्वहो लाडणस्तदंगभवः । अस्ति स्माल सिंहस्तदंगजो मंडलिक नाम ' ॥१६॥
प्र० सं० द्वि० भा० पृ० ७४-७७ (प्र० सं० २६६, २७० ) 'सं० १४८२ वर्षे फाल्गुनशदि १३ खो "व्य० आल्हणसिंह भार्या व्य० उमादेसुत संघ० व्य ० मंडलेन ........ । जै० घा० प्र० ले० सं० भा० २ ले० ६१३ पृ० ११३ 'श्रीरेवतार्बु' दसुतीर्थमुखेसु चैत्योद्धारान कार यदने कपुरेष्यनल्यैः । न्यायार्जितैर्घनभरैर्वरधर्मशाला यः सत्कृतों निखिलमंडल मंडलीकैः वसुरसभुवन प्रमिते (१४६८) वर्षे विक्रमनृपाद विर्निर्जितवान् | दुष्कालं समकालं बहुधानान वितरणाद्यः ॥ १८ ॥ वर्षेषु सप्तसप्तत्यधिक चतुर्दशशतेषु (१४७७) यो यात्रां । देवालय कलिता किल चक्रे शत्रुष्जयाद्येषु ||१६|| श्रुतलेखन संघाचे प्रभृतिनिबहूनि पुण्यकार्याणि । योऽकार्षीद् विविधानि च पूज्यजयानंद सूरिंगिरा ॥ २ ॥ व्यवहार ठाइ श्रख्योऽभूद्दक्षस्तत्तनुज एव विजिताक्षः । वरमणकाई नाम्नी सत्ववती जन्यजानि तस्य ॥२१॥ तत्कुक्ष्यनुपममानस कासार सितच्छादास्त्रयः पुत्राः । अभवन् श्रेष्ठाः पर्वत डूंगर नरवद सुनामानः ॥ २२ ॥ तेष्वस्ति पर्वताख्यो लक्ष्मीकान्तः सहस्रवीरेण पोइ श्रप्रमुख कुटुम्बैः परीवृतो वंशशोभाकृत् ॥ २३॥ डुंगरनामा द्वितीयः स्वचारुचातुर्यत्रर्य मेधावान् । पत्नीतज्जां मंगादेवी रमणः कान्हाख्यसुतपक्षः ॥२४॥
प्र० [सं० प्र० भा०पृ० ७४, ७८ (१० २६६, २७०)