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________________ २५२ 1 :: प्राग्वाट-इतिहास : [ तृतीय से परास्त हो चुका था और अपनी परमसुन्दरा प्रिया महाराणी को भी खो चुका था। ऐसे निर्बल सम्राट के शासनकाल में दुश्मनों के अत्याचारों से प्रजा का पीड़ित होना सम्भव ही है। यशस्वी एवं दृढ़ जैनधर्मी पेथड़ ने अर्बुदगिरि के लिये एक विशाल संघ निकाला और बड़ी भावभक्ति से तीर्थ की पूजा-भक्ति की तथा महामात्य वस्तुपाल तेजपाल द्वारा विनिर्मित प्रसिद्ध लूणवसहिका का जीर्णोद्धार प्रारम्भ करवाया। इस जीर्णोद्धार में पेथड़ ने अत्यन्त द्रव्य का व्यय किया । पेथड़ ने यह कार्य अपने यश और मान की वृद्धि के हेतु नहीं किया था । जीर्णोद्धार के कराने वाले जैसे अपनी और अपने वंश की कीर्ति को चिर बनाने की इच्छा से बड़ी २ प्रशस्तिये शिलाओं पर खुदवा कर लगवाते हैं, उस प्रकार उसने अपनी कोई प्रशस्ति नहीं खुदवाई । वसहिका के एक स्तम्भ पर केवल एक श्लोक अंकित करवाया कि संघपति पेथड़ ने सूर्य और चन्द्र रहे, तब तक रहने वाले सुदृढ़ इस लूणवसहिका नामक जिनमन्दिर का अपने कल्याणार्थ जीर्णोद्धार करवाया। इस जीर्णोद्धार से पेथड़ के अतुल धनशाली होने का परिचय तो मिलता ही है, परन्तु वह नामवर्धन एवं आत्मकीर्ति के लिये कोई पुण्य-कार्य नहीं करता था का भी विशद परिचय मिलता है । यह महान् गुण अन्य व्यक्तियों में कम ही देखने में आया है। गूर्जरसम्राट् कर्णदेव के राज्यकाल में वि० संवत् १३६० में पेथड़ ने भारी संघ के साथ में शत्रुजय, गिरनार आदि प्रमुख तीर्थों की यात्रा की । पेथड़ के अन्य छः भ्राता और उनका समस्त परिवार भी इस संघ-यात्रा तीर्थ-यात्रायें और विविध में उपस्थित था । इसी प्रकार उसने भारी समारोह से अपने पूरे कुटुम्ब और भारी संघ के क्षेत्रों में धर्मकृत्य तथा चार साथ में इन्हीं तीर्थों की छः बार पुनः पुनः तीर्थयात्रायें की थीं। श्रीमद् सत्यमूरि के ज्ञान-भण्डारों की संस्थापना सदुपदेश से पेथड़ ने चार ज्ञानभण्डारों की भी स्थापनायें की थीं। अर्बुदाचल के ऊपर बने हुये भीमाशाह के प्रसिद्ध विशाल जिनालय में भीमाशाह द्वारा विनिर्मित आदिनाथ भगवान् की विशाल धातु-प्रतिमा, जो अपूर्ण रह गयी थी, उसको पेथड़ ने सुवर्ण की सेंधे लगाकर पूर्ण करवाई। ६ नव क्षेत्रों में पेथड़ ने अतुल द्रव्य व्यय किया। इस प्रकार पेथड़ ने अनेक धर्मकृत्य किये और भारी यश, कीर्ति प्राप्त की। पेथड़ महान् धर्मात्मा, मातृ-पितृ भक्त, दानी, परोपकारी, सद्गुणी और ज्ञान का पुजारी था। वि० सं० १३७७ में गर्जरभूमि में तृवर्षीय महा भयंकर दुष्काल पड़ा था । उस समय भी पेथड़ ने खुले मन और धन से गरीब मनुष्यों को अन्नदान देकर अपनी मातृभूमि की महान् यशदायी सेवा की थी। 'श्राचन्द्राक्कै नन्दतादेष संघाधीशः श्रीमान् पेथड़ः संघयुक्तः । जीर्णोद्धारं वस्तुपालस्य चैत्ये तेने येनेहाऽर्बुदाद्रौ स्वसारैः ।। अ० प्रा० जै० ले० सं० ले० ३८२ 'योऽकारयत् सचिवपुंगव वस्तुपाल निर्मापितेऽर्बदगिरिस्थित नेमिचैत्ये। उद्धारमात्मन इव बडतोह्यपारसंसार दुस्तरणवारिधिमध्य इध्ध' ||७|| प्र०सं०वि० भा० प्र०सं०२६६, २७० 'समहगतिलधोः श्री कर्णदेवस्य राज्ये ॥॥ 'खरस समयसोमे (१३६०) बंधुभिः षडभिरेव, सहसम सुविधिना साधने सावधानः । 'विमलगिरिशिरः स्थादीश्वरे चोज्जयन्ते । यदुकुलतिलकामं नेमिमानम्य मोदात् ॥१०॥
SR No.007259
Book TitlePragvat Itihas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherPragvat Itihas Prakashak Samiti
Publication Year1953
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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