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खण्ड] :: न्यायोपार्जित द्रव्य से मंदिरतीर्थादि में निर्माण-जीर्णोद्धार कराने वाले प्रा०ज्ञा० सद्गृहस्थ-श्रे० पेथड़। [२५१
धर्मपत्नियाँ थीं । इस प्रकार वाग्धन का परिवार अति विशाल एवं सुखी था। इन सातों भ्राताओं में पेथड़ अधिक प्रसिद्ध हुआ । पेथड़ ने संडेरक में एक भव्य जैन मन्दिर का निर्माण करवाया था ।
पेथड़ और उसके भ्राताओं के विविध पुण्यकार्य
पेथड़ और संडेरक ग्राम के अधीश्वर के बीच किसी कारण से झगड़ा हो गया। निदान सातों भ्राताओं ने संडेरक ग्राम को छोड़ने का विचार कर लिया । पथड़ ने बीजा नामक एक वीर क्षत्रिय के सहयोग से बीजापुर पेथड का संकिपरको कोड नामक नगर को बसाया और अपने समस्त परिवार को लेकर वहाँ जाकर उसने वास कर बीजापुर का बमाना किया। बीजापुर में आकर बसने वालों के लिये पेथड़ ने कर आधा कर दिया। इससे
और वहाँ निवास करना थोड़े ही समय में बीजापुर में घनी आबादी हो गई। पेथड़ ने वहाँ एक विशाल महावीर जैनमन्दिर बनवाया और उसको अनेक तोरण, प्रतिमाओं से और शिल्प की उत्तम कारीगरी से सशोभित क उसमें भगवान महावीर की विशाल पीतलमयी मर्ति प्रतिषित की। एक सन्दर घर-मन्दिर भी बन उसमें
र की सुन्दर धातमयी प्रतिमा विराजमान की। वि० सं०१३६० में उक्त प्रतिमा को पुनः अपने बड़े मन्दिर में बड़ी धूम-धाम से विराजमान करवाई। इन धर्म-कृत्यों में पेथड़ ने अपार धन-राशी व्यय की थीं। इन अवसरों पर उसने याचकों को विपुल दान दिया था और अनेक पुण्य के कार्य किये थे। फलतः उसका और उसके परिवार का यश बहुत दूर-दूर तक प्रसारित हो गया। पेथड़ उस समय की जैनसमाज के अग्रणी पुरुषों में गिना जाने लगा।
सातों भ्राताओं में अपार प्रेम था। छः ही भ्राता ज्येष्ठ पेथड़ के परम आज्ञानुवर्ती थे । इसी का परिणाम था कि पेथड़ अनेक धर्मकृत्य करके अपने और अपने वंश को इतना यशस्वी बना सका । यवन आक्रमणकारियों
ने जैसे भारत के अन्य धर्मस्थानों, मन्दिरों को तोडा और नष्ट-भ्रष्ट किया. उसी प्रकार पथड और उसक भ्राताओं अर्बदगिरि पर बने प्रसिद्ध जैनमन्दिर भी उनके अत्याचारी हाथों के शिकार हये बिना के द्वारा अर्बुदस्थ लुण
लूण- नहीं रह सके । अर्बुदगिरि के बहुत ऊंचा और मार्ग से एक ओर होने से अवश्य वे वसहिका का जीणोद्धार
जितनी चाहते थे, उतनी हानि तो नहीं पहुँचा सके, परन्तु फिर भी उनकी सुन्दरता को नष्ट करने में उन्होंने कोई कमी नहीं रक्खी। यह समय गूर्जरसम्राट् कर्ण का था । कर्ण अल्लाउद्दीन खिलजी
'संडेर केऽपहिलपाट कपत्तनस्यासन्ने य एवनिरमापय दुच्वचैत्यं । स्वस्वैः स्वकीय कुलदैवत वीरसेश क्षेत्राधिराज सतताश्रित सन्निधानं ॥४॥ वासावनीनेन समे च जाते, कलौ कुतोऽस्थापयदेव हेतोः । बीजापुर क्षत्रिय मुख्य वीजा सौहार्दतो लोककराद्ध कारी ॥५॥ अत्र रीरीमय ज्ञातानंदनप्रतिमान्वितं । यश्चत्यं कारयामास, लसत्तोरणराजितं' ॥६॥
१० सं० द्वि०भा० पृ०७३,७४-७६ (१०२६६,२७०) D. C. M. P. (G. O.S. Vo. No. LxxVI) P. 247