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:: प्राग्वाट-इतिहास ::
[ तृतीय
मोखू अपने पूर्वजों के सदृश ही धनी, मानी एवं उदारहृदय श्रावक था। उसकी स्त्री का नाम मोहनीदेवी था । मोहनीदेवी पतिपरायणा एवं जैनधर्मदृढ़ा श्राविका थी। उसने चार पुत्रों को जन्म दिया । जिनके नाम क्रमशः यशोनाग, वाग्धन, प्रह्लादन और जाल्हण थे। चारों भ्राताओं में अधिक भाग्यशाली वाग्धन हुआ । वाग्धन की धर्मपरायणा स्त्री सीता थी। सीता की कुक्षी से न्याय एवं सत्य का पुजारी चांडसिंह नामक अति प्रसिद्ध एवं गुणी पुत्र हुआ। चांडसिंह के चार बहिनें थीं-खेतू, मूजल, रत्नादेवी और मयणलदेवी । चाण्डसिंह का विवाह प्राग्वाटज्ञातीय मंत्री बीजा की स्त्री खेतू से उत्पन्न शील एवं सुन्दरता में प्रसिद्ध गौरी नामा कन्या से हुआ। गौरी की कुक्षी से महान् यशस्वी, धर्मवीर नरश्रेष्ठ पृथ्वीभट्ट जिसको जैन ग्रंथकारों ने पेथड़ करके लिखा है का
और अन्य छः प्रतापी पुत्र रत्नसिंह, नरसिंह, मल्लराज, विक्रमसिंह, चाहड़ (धर्मण) और मुजाल नामक प्रसिद्ध, दानवीर, श्रीमंत पुत्रों का जन्म हुआ। सातों भ्राताओं में परस्पर अगाध स्नेह-प्रेम था। इनके एक खोखी नामा बहिन भी थी । वह अति धर्मपरायणा एवं सुशीला थी। पेथड़ की स्त्री का नाम सुहवदेवी था । रत्नसिंह का विवाह सुहागदेवी नामा गुणवती कन्या से हुआ था । नरसिंह की स्त्री नयणादेवी थी, जो गृहकार्य में अति दक्ष और निपुणा थी । मल्लराज की स्त्री प्रतापदेवी थी। विक्रमसिंह और चाहड़ की सीटला और चपलादेवी क्रमशः
'अन्यूनान्यायमार्गापनयनरसिकस्तत्सुत श्चेडसिंहः सप्तासजतू (संस्तात्तनूजाः) प्रथितगुणगणाः पेथडस्तेषु पूर्वः ॥२॥ नरसिंहरत्नसिंहौ चतुर्थमल्लस्ततस्तु मुंजालः विक्रमसिंहों धर्मण इत्येतस्यानुजाः कमतः
॥३॥ संडेरकेऽणहिलपाटकपत्तनस्यासन्ने य एवनिरमापय दुच्यचैत्यं । स्वस्वैः स्वकीय कुलदैवत वीरसेशंक्षेत्राधिराज सतताश्रित सन्निधानं'
॥४॥ उपरोक्त दोनों प्रशस्तियाँ जो 'अनुयोगद्वारसत्रवृत्ति' और 'श्रोघनिर्यक्ति' में है वि० सं०१५७१ की हैं जो पर्वत और कान्हा के समय में लिखी गई है। जै० पु० प्र० संग्रह में पृ० १८ पर प्रशस्ति सं० १६ जो 'भगवतीसत्र सटीक' में है मोख के समय वि० सं०१३५३ की लिखी हुई है। दोनों प्रशस्तियों में पुरुषों के नामों के क्रम में अन्तर है । द्वि० प्रशस्ति में मोखू के पुत्र 'वाग्धन' का पुत्र चाडसिंह है और प्र० प्रशस्ति में मोखू का भ्राता 'वर्धमान' और उसका पुत्र चाडसिंह है । द्वि० प्रशस्ति २१८ वर्ष प्राचीन है; अतः अधिक मान्य यही है।
'योऽचीकरन्मंडपमात्मपुण्यवल्लीमिवारोहयितु सुकर्मा । ग्रामे च संडेरकनाम्नि वीरचैत्येऽजनि श्रेष्टीवरः स मोखः॥३॥ मोहिनीनाम तत्पनी चत्वारस्तनयास्तयोः। यशोनागो धर्मधुर्यः वाग्धन: शुद्धदर्शनः ॥४॥ प्रल्हादनो जाल्हणश्च गुणिनोऽमी तनूभवाः । वाग्धनस्य गृहिण्यासीत् सीतू सम्यक् शीलभाक ।।५।। तत्कुक्षिभूस्तत्पुत्रश्चडिसिंहो विशुद्धधीः। सद्धर्मकर्मनिष्णातो विनयी पूज्यपुज्यकः ॥६॥ पंचपु-योऽभवन् खेतू मूजल-रत्नदेव्यथ । मयणल'........"सर्वा निर्मला धर्मकर्मभिः ॥७॥ इतश्च-बीजाभिधोऽभवन्मंत्री खेतू नाम्नि च तत्प्रिया। तत्पुत्री गोरिदेवीति पुण्यकर्मसु सोधमा ।८।। तो तूढवाश्चांडसिंहस्तत्तनूजा गुणोज्ज्वलाः । श्रद्यः पृथ्वीभटो धीमान् रत्नसिंहो द्वितीयकः ॥६॥ वदान्यो नरसिहश्च तुर्यो मल्लस्तु विक्रमी। विवेकी विक्रमसिह-श्चाहडः शुभाशयः ॥१०॥ मजालश्चेत्यमीषां तु कल्याणाय कृतोद्यमा । स्वसा खोखीरता धर्मे पत्न्यश्चैषां क्रमादिमाः ॥११|| प्रथमा सूहवदेवी सुहागदेव्यथापरा । निपुणा नयणादेवी प्रतापदेव्यथा मता ॥१२॥ सीटला चौपलादेवी पुण्याचारपरायणा । पासा च पुत्राः पुत्र्यश्चाभूवन् भाग्यभरांचिताः' ॥१३॥
जै० पु० प्र० सं० प्र०१६ पृ०१८ [भगवतीसूत्र प्रो घनियुक्ति' और 'अनुयोगद्वारवृत्ति' की प्रशस्तियों में 'चाहड़' के स्थान पर 'धर्मण' छपा है,परन्तु ये प्रशस्तिये उक्त प्रशस्ति से बहुत पीछे की हैं, अतः 'चाहड़' नाम ही अधिक सही समझा गया है।