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:: प्राग्वाट - इतिहास ::
महायशस्वी डुङ्गर और पर्वत तथा कान्हा और उनके पुण्यकार्य
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दोनों भ्राता महान् गुणवान्, धर्मात्मा और उदारहृदय थे । जैनधर्म के पक्के पालक थे । पूर्वज पेड़ और मंडलिक जिस वंश की शोभा और कीर्त्ति बढ़ा गये, उसी कुल में जन्म लेकर इन्होंने उसके गौरव और यश को पर्वत, डूंगर और उनका अधिकही फैलाया। दोनों भ्राताओं में बड़ा प्रेम और स्नेह था । पर्वत की स्त्री का परिवार नाम लक्ष्मीदेवी था सहस्रवीर और पोइया (फोका) नाम के उसके दो पुत्र डूङ्गर की स्त्री का नाम लीलादेवी था। डुङ्गर के मंगादेवी नाम की एक कन्या और हर्षराज, कान्हा नाम के दो पुत्र थे। तीसरे भ्राता नरवद की स्त्री हर्षादेवी थी और उसके भास्वर नाम का पुत्र था । कान्हा के दो स्त्रियां थीं । एक का नाम खोखीदेवी और द्वितीया मेलादेवी थी । मेलादेवी के वस्तुपाल नाम का एक पुत्र था, जिसका विवाह वल्हादेवी नाम की कन्या से हुआ था । फोका की स्त्री देमति थी और उदयकर्ण नामक पुत्र था ।
वि० सं० १५५६ चै० कृ० ५ सोमवार को इन्होंने बहुत द्रव्य व्यय करके महोत्सव किया और उस अवसर पर स्वविनिर्मित प्रतिमा की प्रतिष्ठा करवाई तथा वाचकपदोत्सव करके एक मुनिराज को वाचकपदवी से अलंकृत पर्वत और डूंगर के करवाया | पर्वत और कान्हा ने उपा० श्री विद्यारत्नगाणि के सानिध्य में श्री विवेकरत्नधर्मकृत्य सूरि के उपदेश से व्य० डुङ्गर के श्रेयार्थ 'चैत्यवंदनसूत्र- विवरण' लिखवाया ।
कान्हा दि
"प्राग्वाट सं० वीजा (विजिता) भा० मधू (माणकाई ) पुः सं डूङ्गरसी भार्या लीलू पुत्र हर्षा जै० धा० प्र० ले० सं० भा० १ ० ११५ Do संताने व्य० परबतभा० लखीसुत व्य० फोका भा० श्रा० देमाई सुतविजय कर्णेन' जै० धा० प्र० ले० सं० भा० २ ले० ११३६ 'संवत् १५५६..........व्य० मंडलीकसुत व्य० ढाइ भा० मरणकाई सुत नरवदकेन भा० हरषाई सु० भारवर ....... जै० धा० प्र० ले० सं० भा० २ ले ०८ 'संवत् १५७८...... षोषी मेलादे सुत वस्तुपालादियुतेन 'संवत् १५६१ वर्षे भावाल्हादे
गंधार वास्तव्य
'डूंगरसुत व्य० कान्हाकेन भा०
जै० घा० प्र० ले० सं० भा० २ ले० २६४ गंधार वास्तव्य श्री प्राग्वाटज्ञातीय व्य० कान्हा भा० षोषी मेलादेसु० व्य० वस्तुपालेन
'सं० १५५३'
[ तृतीय
'संवत् १५४६ वर्षे
..."
जै० धा० प्र० ले० सं० भा० २ ले० ६७३ 'फोका' को प्रशस्ति-संग्रह की डूंगर और पर्वत की प्र० २६६, २७० और २७२ में पोइया' लिखा है । हो सकता है वस्तुतः नाम पोइा हो और धातु-प्रतिमा के लेखों को पढ़ते समय अक्षर के प्रकृतिभ्रष्ट हो जाने से 'पोइ' के स्थान में 'फोका' पढ़ा गया हो और ऐसा होना संभव भी है। इसी प्रकार 'विजयक' के स्थान में प्रशस्ति सं० २७२ में 'उदयकरण' लिखा है ।
प्रशस्ति सं० २७२ में श्रा० कक्कू, श्रा०रढ़ी, श्रा० षोषी (खोखी) लिखा है । षोषी का परिचय अन्य लेखों में भी जाता हैं । श्र० ककू और श्रा० रदी श्रावक षोषी से ज्येष्ठा होनी चाहिए। इस दृष्टि से श्रा० ककू हर्षराज की पत्नी और श्रा० रढ़ी नरवद के पुत्र भास्वर की पी मानना अधिक संगत है।
लेखांक २६४ में डूंगरसुत 'कान्हाकेन' से यह ध्वनित होता है कि डूंगर का वि० सं० १५७८ के पूर्व ही स्वर्गवास हो चुका था । 'श्री संदेहविषौषधि' की प्रशस्ति में जो प्र० सं० के पृ० ८० पर २७२वी है में भी डूंगर का नाम नहीं है । यह प्रशस्ति वि० सं० १५७१ की है। इससे यह सिद्ध हुआ कि डूंगर १५७१ में जीवित नहीं था । इन कारणों पर यह कहा जासकता है डूंगर की मृत्यु वि० सं० १५६० के पश्चात् हुई ।