SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 420
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ खण्ड ] :: सिंहावलोकन :: [ २४३ था, तब ही वह हमारे लिये महामाहात्म्यवाले तीर्थ, जिनालय, ज्ञानभण्डार छोड़ गया है, जिनके ही एक मात्र . कारण आज का जैनसमाज भी कुलीन, विश्वस्त, उन्नतमुख और गौरवशाली समझा जाता है। साहित्य और शिल्पकला जैनवाङ्गमय संसार में अपना विशिष्ट स्थान रखता है । कभी जैनमत राजा और प्रजा दोनों का एक-सा धर्म था और कभी नहीं। विक्रम की इन दुःखद शताब्दियों में जनधर्म को वेदमत के सदृश राजाश्रय कभी भी सत्यार्थ में थोड़े से वर्षो को छोड़ कर प्राप्त नहीं रहा है । यह इन शताब्दियों में जैन साधु और जैन श्रावकों द्वारा ही सुरक्षित रक्खा गया है । अतः जैन- साहित्य बाहरी आक्रमणों के समय में भारत के अन्य राज्याश्रित साहित्यों की अपेक्षा अधिकतम खतरे में और सशंकित रहा है । राजाश्रय प्राप्त करके ही कोई वस्तु अधिक चिरस्थायी रह सकती है, यह बात जैन - साहित्य की रक्षाविधि से मिथ्या ठहरती है । भारत में विक्रम की आठवीं शताब्दी से यवनों के आक्रमण प्रारम्भ हो गये थे । महमूद गजनवी और गौरी के आक्रमणों से भारत का धर्म और साहित्य जड़ से हिल उठा था । एक प्रकार से बौद्धसाहित्य तो जला कर भस्म ही कर दिया गया था । वेद और जैन- साहित्य भण्डारों को भी अग्नि की लपटों का ताप सहन करना पड़ा था । धन्य है जैन साधु और श्रीमंत साहित्यप्रेमी जैन श्रावकों को कि जिनके सतत् प्रयत्नों से ज्ञानभण्डारों की स्थापना करने की बात सोची गई थी और वह कार्यरूप में तुरन्त परिणित भी कर दी गई थी। जिस प्रकार जैन मन्दिरों के बनाने में जैन अपना मूल्य धनमुक्तहृदय से व्यय करते थे, उस ही प्रकार वे जैन ग्रन्थों, आगमों, निगमों, शास्त्रों, कथाग्रन्थों की प्रतियाँ लिखवाने में व्यय करने लगे । प्राग्वाटज्ञातीय श्रेष्ठियों ने भी इस क्षेत्र में भारी और सराहनीय भाग लिया है। श्रेष्ठि देशल, धीरणाक, मण्डलिक, वाजक, जिह्वा, यशोदेव, राहड़, जगतसिह, रामदेव, ठक्कुराज्ञि नाऊदेवी, ० धीना, श्रा० सुहड़ादेवी, श्रे० नारायण, श्रे० वरसिंह आदि आगमसेवी उदारमना श्रीमंतों ने कई ग्रंथों की प्रतियाँ ताड़पत्र और कागज पर करवाई और उनको ज्ञानभण्डारों में तथा साधुमुनिराजों को भेंट स्वरूप प्रदान कीं। विक्रम की तेरहवीं शताब्दी में प्राग्वाटज्ञातीय गुर्जर महामात्य वस्तुपाल की विद्वत्-परिषद् में राजा भोज के समान नवरत्न (विद्वान् ) रहते थे। कई जैनाचार्य उनकी प्रेरणाओं पर जैनसाहित्यसृजन में लगे ही रहते थे । वस्तुपाल की विद्वत्परिषद का वर्णन उसके इतिहास में पूरा २ दिया गया है । यहाँ इतना ही कहना पर्याप्त है कि इन मंत्री भ्राताओं ने अट्ठारह कोटि द्रव्य व्यय करके जैनग्रन्थों की प्रतियाँ करवाई और उनको खंभात, अणहिलपुरपत्तन और भड़ौच में बड़े २ ज्ञानभण्डारों की स्थापना करके सुरक्षित रखवाई गई । जैनसमाज के लिये यह गौरव की बात है कि उसकी स्त्रियों ने भी जैन साहित्य की उन्नति के लिये अपने द्रव्य का भी पुरुषों के समान ही व्यय करके साहित्यप्रेम का परिचय दिया है । शिल्पकला के लिये कहते हुये कह कहना प्रथम आवश्यक प्रतीत होता है कि जैनियों द्वारा प्रदर्शित शिल्पकला मानव की सौन्दर्यप्यासी रूचि पर नहीं घूमती थी । प्राग्वाटज्ञातीय बन्धुवर महाबलाधिकारी दण्डकनायक विमल द्वारा विनिर्मित एवं वि० सं० २०८८ में प्रतिष्ठित अर्बुदगिरिस्थ श्रीविमलवसति की शिल्पकला को देखिये । वहाँ जो भी शिल्पकार्य मिलेगा, वह होगा धर्मसंगत, पौराणिक एवं महान् चरित्रों का परिचायक । इस ही प्रकार वि० सं० १२८७ में प्रतिष्ठित हुई अबु दगिरिस्थ श्री नेमिनाथ नामक लूणसिंहवसति को भी देखिये, उसमें भगवान्
SR No.007259
Book TitlePragvat Itihas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherPragvat Itihas Prakashak Samiti
Publication Year1953
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy