SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 419
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २४२ ] :: प्राग्वाट - इतिहास :: [ द्वितीय मूल्यवान वस्त्र के साथ में प्रत्येक सधर्मी बन्धु को स्वामी - वत्सल करने वाले की ओर से दिया जाता था । अंजनशलाका-प्रतिष्ठोत्सवों में, दीक्षोत्सवों में पाटोत्सवों में, उपधानादि तपोत्सवों में अगणित द्रव्य व्यय किया जाता था । सारांश यह है कि उस समय के लोग अपने सर्वस्व एवं अपने धन, द्रव्य को समाज की सेवा में और धर्म की प्रभावना करने में पूरा २ लगाते थे । धनपति होकर भी भोग और विलास से वे थे । विलास की अकिंचन सामग्री भी उनके धन से भरे गृहों में देखने तक को नहीं मिलती थी। घर पर आये अतिथि का बिना धर्म, ज्ञाति-भेद के वे स्तुत्य आतिथ्य सत्कार करते थे । घर से किसी को कभी भी क्षुधित नहीं जाने देते थे । जैन समाज अपने साधुओं का बड़ा मान करती थी। उनके ठहरने के लिये, चातुर्मास में स्थिर रहने के लिये और देवदर्शन के लिये प्रत्येक जैन बसति वाले छोटे-बड़े ग्राम, नगर में छोटे बड़े उपाश्रय, पौषधशालायें, मन्दिर होते थे । बड़े २ नगर जैसे अणहिलपुरपत्तन, प्रभाषपाटण, खम्भात, भरौंचादि में कई एक उपाश्रय और पौषधशालायें लक्षों रुपयों के मूल्य की बनाई हुई होती थीं । लड़के और लड़कियों का विवाह बड़ी आयु में होता था । वर और कन्या की परीक्षा संरक्षक अथवा मातापिता करते थे और सम्बन्ध भी उनकी ही सम्मति एवं निर्णय पर निश्चित होते थे। पर्दा की आज जैसी प्रथा बिल्कुल नहीं थी । विवाह होने के पूर्व वर और कन्या अपने भावी श्वसुरालय में निमन्त्रित होते थे और कई दिवसपर्यन्त वहाँ ठहरते थे । वे संघादि में भी साथ २ रह सकते थे । उनको बात-चीत करने की भी पूरी स्वतन्त्रता संयमशील माता-पिताओं की संयमशील, ब्रह्मचर्यव्रत के पालक, कुलमर्यादा एवं मान को अक्षुण्ण बनाये रखने वाली सन्तानें थीं । कन्या - विक्रय, वरविक्रय जैसी समाजघातक कुप्रथायें उन दिनों में ज्ञात भी नहीं थीं। बड़े २ दहेज दिये जाते थे, परन्तु पहिले से उनका परस्पर निश्चय नहीं करवाया जाता था । घर में वृद्धजन पूजनीय और श्रद्धा के पात्र होते थे । समस्त परिवार प्रमुख की आज्ञा में चलता था । बड़े से बड़ा परिवार भी एक चूल्हे रोटी खाता था और सम्मिलित व्यापार करता था। कन्दमूल का भोजन में जहाँ तक होता कम प्रयोग होता था । लहसुन, प्याज जैसी गन्ध देने वाली एवं असंख्य जीवों का पिण्डवाली चीजों का प्रयोग सर्वथा वर्जित था। भोजन में घी, तेल, दूध, दाल, सुखाये हुये शाक, रोटी का ही अधिक प्रयोग था । हरी शाक भी गिनती की होती थी । रात्रिभोजन सर्वथा वर्जित था । अभक्ष्य चीजों का प्रयोग बिलकुल नहीं होता था । अतः वे दीर्घायु होते थे और पूर्ण स्वस्थ रहते थे । ग्रामों और छोटे नगरों में रहने वाले गौ और भैसें रखते थे और अपने पोषण के योग्य अन्नप्राप्ति के लिये कृषि भी करते थे । खेत में वे स्वयं कार्य करते थे और सेवकों से भी सहायता लेते थे । वे किसी के आश्रित नहीं थे । वे किसी के आगे हीन बनकर नहीं रहते थे और नहीं किसी वस्तु के लिये किसी के आगे हाथ ही पसारते थे । जैनसमाज में भिक्षा माँगने की प्रथा नहीं तो कभी थी और आज भी नहीं है । जैन कर्मठ कार्यशील होता है । वह अपने हाथों कमाता है । वह व्यापार में अधिक विश्वास रखता है । वह कार्य अपने हाथ करने में किसी भी प्रकार की लज्जा एवं अपमान का अनुभव नहीं करता है । उसका दिनोंदिन धन की वृद्धि मूल उद्देश्य सदा ही आय कम व्यय करने का होता है और इसी का सुफल है कि वह ही करता रहता है । समय पर अपने संचित द्रव्य का सदुपयोग करने में वह कभी पीछे इस बात को प्रमाणित कर रहा है। उन शताब्दियों में जैनसमाज स्वस्थ, सुखी, समृद्ध, नहीं रहा है । इतिहास सुसंगठित और धर्मभक्त
SR No.007259
Book TitlePragvat Itihas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherPragvat Itihas Prakashak Samiti
Publication Year1953
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy