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: प्राग्वाट-इतिहास::
[ द्वितीय
नेमिनाथ और राजमति के विवाहविषयक बातों को दिखाने वाला शिल्पकाम होगा । द्वारिका का दृश्य जिसमें समुद्र तटों का देखाव, तटपर के वन, उपवन, गिरि, वसति, गौ आदि पशुओं के झुण्डों के देखाव और चारागाह के हरितम जंगल दिखाये गये हैं, मनोहर हैं। विमलवसहि के निर्माण में अट्ठारह कोटि द्रव्य और लूणसिंहवसहि के निर्माण में बारह कोटि छप्पन लक्ष द्रव्य व्यय हुआ है। ये दोनों जिनालय संसार में शिल्प की दृष्टि से बने भवनों में अपनी विशिष्टता के लिये सर्व प्रथम ठहरते हैं । लूणसिंहवसहिका का निर्माण तो दण्डनायक तेजपाल की प्रतिभासम्पन्ना स्त्री अनोपमा की सम्पूर्ण देखरेख में ही हुआ है । स्त्री अनोपमा में शिल्पकार्य के लिये प्रेमपूर्ण हृदय था । वह शिल्पशास्त्र की ज्ञाता भले नहीं भी थीं, परन्तु वह उत्तम शिल्प की परीक्षा करना जानती थी । उसका यह गुण उक्त वसहिका के प्रकार को देखकर सहज समझा जा सकता है । साधन-सामग्री की पर्याप्त कमी के कारण मैं अन्य प्राग्वाटज्ञातीय शिल्पप्रेमी श्रेष्ठियों के शिल्पकार्यों का इतिहास देने में अवश्य अपने को असफल हुआ मान रहा हूँ। फिर भी जिन शताब्दियों में विमलवसहि और लूणसिंहवसहि जैसी शिल्पकलावतार साकारप्रतिमाओं का अवतरण हुआ है, उन वर्षों में प्रत्येक जैन शिल्प का अतिशय प्रेमी था और उसका वह शिल्पप्रेम ईश्वरोपासक था और धर्मोन्नतिकारक था भलिविधि सिद्ध हो जाता है। वस्तुपाल द्वारा विनिर्मित गिरिनारपर्वतस्थ श्रीवस्तुपालनामक हूँक भी बारह कोटि द्रव्य से भी अधिक में बनी थी। शिल्प पर इतिहास के पृष्ठों में यथाप्रसंग सविस्तार खूब ही लिखा गया है, अतः यहाँ पक्तियाँ बढ़ाना ठीक नहीं समझता हूँ।
जैनवर्ग अथवा जैनसमाज जैसा धर्म में प्रमुख रहा है, वैसा व्यापार और राजनीति के क्षेत्र में भी अग्रिम रहा है । मेरी मति से इसका कारण यही होता है कि धर्म में जो दृढ़ होता है वह सर्वत्र उन्नति करता है और फलता है
तथा वह अधिक जनप्रिय, निष्कपट, विश्वस्त, दृढ़, कष्टसहिष्णु, चतुर, न्यायी, दूरराजनैतिक स्थिति
दर्शी, परोपकारी, निस्वार्थी, व्यवहारकुशल, सदाचारी विशिष्टगुणों वाला होता ही है । ये गुण राज्यचालन एवं शासनकार्य करने वाले व्यक्ति में होने चाहिए। एतदर्थ राजनीतिक्षेत्र में भी जैन सफल होते देखे गये हैं । इसके पक्ष में सौराष्ट्र,गूर्जरभूमि, राजस्थान,मालव-राज्यों के तथा छोटे-बड़े मण्डलों के इतिहासों से सहस्रों उदाहरण लिये जा सकते हैं। जैन सदा अपने धर्म का अनुव्रती रहा है और एतदर्थ वह देश एवं अपने प्रान्तीय राज्यों की सेवा में पूरा २ सफल हुआ है । भारत का इतिहास स्पष्ट कहता है कि अपने
ने स्वामी राजा ए माण्डलिक, ठक्कुर तक को ब्राह्मण और क्षत्रिय मंत्रियों ने समय एवं अवसर पर धोखा दिया है एवं उनके साथ में विश्वासघात किया है और राज्यों में वे बड़े २ घातक परिवर्तनों के कारणभूत हुये हैं। परन्तु इतिहास एक भी ऐसा उदाहरण नहीं दे सकता, जो यह सिद्ध करे कि अमुक जैन महामात्य, मन्त्री, महावलाधिकारी, दंडनायक, कोषाध्यक्ष अथवा विश्वस्त राजकर्मचारी ने अपने स्वामी को अपने स्वार्थ एवं अपना अपमान हुये के कारण नीचा दिखाने का कभी भी प्रयत्न किया हो तथा उसको राज्यच्युत करके आप राजा बना हो। भारत में निवास करने वाली छोटी, बड़ी, ऊँची और नीची प्रत्येक ज्ञाति का कहीं न कहीं और कभी न कभी किसी न किसी प्रान्त में राज्य अवश्य छोटा या बड़ा रहा है, परन्तु किसी भी जैन ने कभी भी, कहीं भी छोटा या बड़ा राज्य स्थापित किया ही नहीं । वह तो धर्म और देश का भक्त रहा है । इतिहास में यह भी कहीं नहीं मिलेगा कि किसी वीरवर एवं महाप्रमविक जैनश्रावक ने कभी राज्यस्थापना करने का प्रयत्न तो दूर, मन एवं स्वप्न में भी उसका