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खण्ड] :: श्री जैन श्रमण-संघ में हुये महाप्रभावक आचार्य और साधु-बृहत्तपगच्छीय श्रीमद् वादी देवसूरि .
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सूरिपद पर प्रतिष्ठित होने के पश्चात् इन्होंने धवलकपुर की ओर विहार किया और वहाँ उदय नामक सुश्रावक द्वारा बनवाई हुई सीमंधर-प्रतिमा की प्रतिष्ठा की। तत्पश्चात् अर्बुदगिरितीर्थ की यात्रा को निकले । इस
समय श्रीमद् मुनिचन्द्रसूरि अधिक अस्वस्थ हो गये थे, अतः उनका अन्तिम समय गच्छनायकपन की प्राप्ति
निकट जानकर ये तुरन्त अणहिलपुर आये । वि० सं० ११७८ में श्रीमद् मुनिचन्द्रमूरि का स्वर्गवास हो गया और गच्छनायकत्व का भार आप पर और आपके गुरुभ्राता अजितदेवसरि पर आ पड़ा ।१
___ आप श्री जिस समय अणहिलपुरपत्तन में विराजमान थे, ठीक उन्हीं दिनों में देवबोधि नामक महान् पंडित एवं अजेय वादी वहाँ आया। उसने राजद्वार पर निम्न श्लोक लटकाया और उसका अर्थ मांगा। महान् विद्वान् देवबोधि का गूर्जरसम्राट् सिद्धराज जयसिंह बड़ा ही साहित्यप्रेमी सम्राट् था। उसकी विद्वत्सभा में परास्त होना
गूर्जरभूमि के बड़े २ विद्वान् पंडित रहते थे । राजसभा में वाद और प्रतियोगितायें सदा चलती ही रहती थीं। ऐसी उन्नत एवं विश्रुत विद्वत् सभा में बड़े बड़े पंडित एवं वादी विद्यमान थे; परन्तु गूर्जरसम्राट् सिद्धराज जयसिंह की ऐसी विश्रुत विद्वत् सभा का कोई भी विद्वान् निम्न श्लोक का अर्थ नहीं लगा सका।
'एकद्वित्रिचतुःपश्च-पएमेनकमनेनकाः । देवबोधे मयि क्रुद्धे, पएमेनकमनेनकाः ।। महाकवि श्रीपाल के द्वारा सम्राट को मालूम हुआ कि प्रसिद्ध जैनाचार्य देवसूरि पत्तन में आये हुये हैं। सम्राट ने देवसरि को राज्य-सभा में निमंत्रित किया और उपरोक्त श्लोक का अर्थ बतलाने की प्रार्थना की । देवसरि ने अविलंब श्लोक का अर्थ कह बतलाया । राज्यसभा में देवसूरि की भूरी २ प्रशंसा हुई और देवबोधि नतमस्तक हुआ।
देवसूरि ने उपरोक्त श्लोकों का अर्थ इस प्रकार बतलायाः-- एक-प्रत्यक्ष प्रमाण के माननेवाले चार्वाक । दो-प्रत्यक्ष और अनुमान इन दो प्रमाणों के मानने वाले बौद्ध और वैशेषिक । तीन-प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम इन तीन-प्रमाणों के माननेवाले सांख्य । चार-प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम और उपमान इन चार प्रमाणों के मानने वाले नैयायिक । पांच-प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम, उपमान और अर्थापत्ति इन पांच प्रमाणों को मानने वाले प्रभाकर । छः–प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम, उपमान, अर्थापत्ति और अभाव इन छः प्रमाणों को मानने वाले मीमांसक ।
श्रीमालज्ञातीय प्रसिद्ध नरवर महामात्य उदयन का तृतीय पुत्र बाहड़ था। इसने पत्तन में महावीरस्वामी का अति विशाल जिनालय बनवाया और उसकी प्रतिष्ठा वादी देवमूरि ने की। प्रतिष्ठाकार्य करके आप नागपुर
बाहड़ द्वारा विनिर्मित पधारे । नागपुर के राजाने आपका महोत्सवपूर्वक नगर-प्रवेश करवाया। उसी समय सम्राट जिनमदिर की प्रतिष्ठा सिद्धराज जयसिंह ने नागपुर के राजा पर आक्रमण किया और नागपुर को चारों सम्राट् के हृदय में देवसरि के प्रति श्रद्धा ओर से घेर लिया । परन्तु सम्राट को जब यह ज्ञात हुआ कि नगर में देवसरि विराजमान परिचय .
हैं, घेरा उठाकर अणहिलपुर चला आया। तत्पश्चात् सम्राट ने देवमूरि को पत्तन में
१-'अष्टहयेमित ११७८ ऽब्दे विक्रमकालाद् दिवं गतो भगवान् ७२॥ 'तस्मादभूदजितदेवगुरु ४२ रीयान्, प्राच्यस्तपः श्रुतनिधिर्जलधिगुणानाम् । श्री देवस रिरपरश्च जगत्प्रसिद्धो, वादीश्वरो ऽस्त गुणचन्द्रमदो ऽपि बाल्ये ॥७३॥
गुर्वावली पृ.७-८. प्र०२० में सम्राट् जयसिंह को अम्बिकादेवी ने स्वप्न में देवसरि को राज्यसभा में निमंत्रित करने का आदेश दिया-लिखा है।