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________________ २१२] प्राग्वाट-इतिहास : [ द्वितीय निमंत्रित किया और चातुर्मास वहीं करवाया और फिर नागपुर पर आक्रमण करके वहाँ के राजा को परास्त किया । इस घटना से यह सिद्ध होता है कि सम्राट सिद्धराज देवसूरि का कितना मान करता था । कर्णाटकीय वादी चक्रवर्ती कुमुदचन्द्र को देवसरि की प्रतिष्ठा से ईर्ष्या और गूर्जरसम्राट की राज्यसभा में वाद होने का निश्चय, देवसूरि का जय और उनकी विशालता यह पूर्व ही लिखा जा चुका है कि वह वादों का युग था । आये दिन समस्त भारत के प्रसिद्ध नगरों में, राजधानियों में, राज्यसभाओं में भिन्न २ मतों, सम्प्रदायों, धर्मों के विद्वानों में भिन्न २ विषयों पर वाद होते रहते थे। उस समय जैनधर्म की दोनों प्रसिद्ध शाखा दिगम्बर और श्वेताम्बर में भी मतभेद चरमता को लाँध गया था। कर्णावती के श्वेताम्बर-संघ के अत्याग्रह पर वि० सं० ११८० में देवसूरि का चातुर्मास भी कर्णावती में हुआ। उसी वर्ष दिगम्बराचार्य वादीचक्रवर्ती कुमुदचन्द्र का चातुर्मास भी कर्णावती में ही था। दोनों उच्चकोटि के विद्वान् , तार्किक एवं अजेय वादी थे। कुमुदचन्द्र को देवसूरि की प्रतिष्ठा से ईर्ष्या उत्पन्न हुई और उन्होंने कलहपूर्ण वातावरण उत्पन्न किया । अन्त में दोनों प्राचार्यों में वाद होने का निश्चय हुआ। इसके समाचार देवसूरि ने पत्तन के श्रीसंघ को भेजे । पत्तन के श्रीसंघ के आग्रह पर वाद अणहिलपुरपत्तन में गूर्जरसम्राट् सिद्धराज जयसिंह की विद्वत्-परिषद के समक्ष होने का निश्चय हुआ और कुमुदचन्द्र ने भी पत्तन में जाना स्वीकार कर लिया। वि० सं० ११८१ वैशाख शु. १५ के दिन गूर्जरसम्राट् की विद्वत्मण्डली के समक्ष भारी जनमेदनी के बीच गूर्जरसम्राट् सिद्धराज जयसिंह की तत्त्वावधानता में वाद प्रारम्भ हुआ । वाद का विषय स्त्री-निर्वाण था । वाद का निर्णय देने में सहायता करने वाले सभासद् विद्वत्वयं महर्षि, कलानिधान उत्साह, सागर और प्रज्ञाशाली राम थे। ये सभासद् अति चतुर, भाषाविशेषज्ञ एवं अनेक शास्त्रों के ज्ञाता थे। वाद प्रारम्भ करने के पूर्व कुमुदचन्द्र ने सम्राट की स्तुति की और स्तुति के अन्त में कहा कि सम्राट् का यश वर्णन करते हुये 'वाणी मुद्रित हो जाती है। उपरोक्त चारों सभासदों को 'वाणी मुद्रित हो जाती है। पद के प्रयोग पर कुमुदचन्द्र की ज्ञानन्यनता प्रतीत हुई और उन्होंने सम्राट् से कहा, 'जहाँ वाणी मुद्रित हुई ऐसा दिगम्बराचार्य का कथन है, वहाँ पराजय है और जहाँ श्वेताम्बराचार्य का स्त्रीनिर्वाण ज्ञानीनिर्वाण है ऐसा कथन है, वहाँ अवश्य जय है।' देवसरि के पक्ष में प्राग्वाटवंशीय प्रसिद्ध महाकवि श्रीपाल प्रमुख सहायक था तथा महापंडित भानु एवं उदीयमान् प्रसिद्ध विद्वान् हेमचन्द्राचार्य थे। उधर कुमुदचन्द्र के सहायक तीन केसव थे। ज्ञान के क्षेत्र में देवसूरि ने अनेक ज्ञानिनी, विदुषी, आत्माढ्या, सती स्त्रियों के उदाहरण देकर ऐतिहासिक ढंग से उनका प्रकर्ष दिखाते हुये सिद्ध किया कि स्त्रियाँ ज्ञान में पुरुषों से कम नहीं हैं। जब वे ज्ञान में कम नहीं पाई जाती हैं तो उसी ज्ञान के आधार पर फलने वाले प्रत्येक कर्म की फलप्राप्ति में वे पीछे या वंचिता कैसे रह सकती हैं। इस प्रकार ऐतिहासिक प्रमाणों की उपस्थिति पर कुमुदचन्द्र विरोध में निस्तेज पड़ गये और सभा के मध्य उनको स्वीकार करना पड़ा कि देवसूरि महान् विद्वान् है । देवसरि का जय-जयकार हुआ और सम्राट ने उनको ‘वादी' की पदवी से विभूषित करके एक लक्ष मुद्रायें भेंट की। परन्तु निःस्पृह एवं निर्ग्रन्थ आचार्य ने साध्वाचार का महत्त्व समझाते हुये उक्त मुद्रायें लेने से अस्वीकार किया तथा राजा से कहा कि मेरे बन्धु कुमुदचन्द्र का उनके निग्रह एवं पराजय पर कोई तिरस्कार नहीं करें।
SR No.007259
Book TitlePragvat Itihas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherPragvat Itihas Prakashak Samiti
Publication Year1953
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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