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:: मंत्री भ्राताओं का गौरवशाली पूर्जर-मंत्री-वंश और सर्वेश्वर महामात्य वस्तुपाल
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का निरीक्षण करने जाते, मन्दिरों के दर्शन करते और उपाश्रयों में साधु-बुनिराजों से अनेक धार्मिक विषयों पर चर्चा करते । वहाँ से आकर शयनागार में जाने के पूर्व कुछ क्षण अपने आस्थान में बैठकर परिजनों से, सम्बन्धियों से देश-विदेश में तीर्थों, पर्वतों, जंगलों, पुर, नगर, ग्रामों में होते निजीय धार्मिक कार्यों पर चर्चायें करते । कभी-कभी राजकीय विषयों पर महाकवि सोमेश्वर, सुनीतिज्ञ स्त्रीरत्न अनुपमा, जैत्रसिंह, लावण्यसिंह से अधिक समय तक चर्चायें करते । संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि दोनों ही महामात्य भ्राता एक साथ धार्मिक एवं राज्यपुरुष थे और फलतः धार्मिक और राज्यक्रियायें दोनों ही उनकी दिव्य थीं।
दिल्ली के तख्त पर इस समय गुलामवंश का द्वितीय बादशाह अल्तमश था। अल्तमश ने गुलामवंश की नींव दृढ़ की तथा समस्त उत्तरी भारत में अपना साम्राज्य सुदृढ़ किया । जालोर के चौहान राजा उदयसिंह यवन-सैन्य के साथ युद्ध को वि० सं० १२६८ और १२७४ के बीच सम्राट् अल्तमश ने परास्त किया, और उसकी पराजय और ज्योहिं वह दिल्ली पहुंचा, उदयसिंह ने दिल्ली से संबंध-विच्छेद कर दिया और वीरधवल की अधीनता स्वीकार कर ली । उदयसिंह ने अपने राज्य को खूब बढ़ाया, यहाँ तक कि नाडोल, भिन्नमाल, मंडोर और सत्यपुर (साचोर) पर भी उसका अधिकार हो गया। उधर भेदपाट (मेवाड़) का महाराजा जैतसिंह भी स्वतन्त्र था । जैतसिंह का राज्य बहुत दूर तक फैला हुआ था। नागदा (नागद्रह) उसकी राजधानी थी । गूर्जरदेश भी स्वतंत्र था और गूर्जरसाम्राज्य उत्तरोत्तर समृद्ध और बली होता जा रहा था । यह सब अल्तमश कैसे सहन कर सकता था। उसने एक समृद्ध सेना वि० सं० १२८३ (सन् १२२६ ई०) में राजस्थान की ओर भेजी । इस सेना ने रणथंभोर और मंडोर पर अधिकार कर लिया और गूर्जरभूमि की ओर बढ़ना चाहा। उधर महामात्य वस्तुपाल ने गूर्जर सैन्य को सजाया । महामात्य वस्तुपाल और दंडनायक तेजपाल, दोनों प्राता एक लाख सैन्य लेकर अर्बुदाचल की उपत्यका में पहुँचे । राणक वीरधवल भी साथ था। चंद्रावती का राजा धारावर्ष भी अपने वीर पुत्र सोमसिंह के साथ विशाल सैन्य लेकर गूर्जरभूमि की यवनों से रक्षा करने के लिये गूर्जरसैन्य में आ सम्मिलित हुआ। उधर जालोर का चौहान राजा उदयसिंह मी अपने वीरसैन्य को लेकर इनमें आ मिला। अर्बुदाचल की तंग उपत्यका में आकर शाही सैन्य दो ओर से पर्वतमालाओं से और दो ओर से गूर्जर-सैन्य से घिर गया। उधर मेदपाट का राजा जैतसिंह भी उत्तर पूर्व से यवनसैन्य को दबा रहा था । पश्चिम में ग्वालियर का स्वतन्त्र शासक था। कुछ दिनों तक यवनसैन्य उपत्यका में ही घिरा रहा। यवनसैन्य को गूर्जरभूमि को जीत कर सिंध की ओर जाने की आज्ञा थी, क्योंकि सम्राट अन्तमश सिन्ध के शासक नासीरुद्दीन कुबेचा पर वि० सं०१२८४ (१२२७ ई०) में आक्रमण करने की तैयारियाँ कर चुका था । यवनसैन्य अब पीछे भी नहीं लौट सकता था क्योंकि पीछे से धारावर्ष यवनसैन्य को दबा रहा था । अन्त में शाही सैन्य को आगे बढ़ना ही पड़ा । आगे गूर्जरसैन्य तैयार खड़ा था । दोनों दलों में घमासान युद्ध हुआ। यवनसैन्य परास्त हुआ और बहुत ही कम यवनसैनिक अपने प्राण बचा कर माग सके । विजयी गूर्जरसैन्य महामात्य वस्तुपाल और दंडनायक तेजपाल तथा राणक वीरधवल का जयनाद 'Ranthambhor fell in 1226 A. D. and Mandor in the Siwalik hills followed quite a year later'
M. I. P. 175 (a) 'Under him (Udaisingh) Jhalor became powerful and his kingdom not only included
Naddula, but Mandor, north Jodhpur, Bhillamal and Satyapura.' (b) 'Then he (Jaitrasingh) began harassing the invador on one side.' G.G. Part lll P. 216