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:: प्राग्वाट - इतिहास ::
[ द्वितीय
दोनों सहोदर रात्रि के एक प्रहर रहते नित्य उठते और उठकर सामायिक प्रतिक्रमण करते । पश्चात् देवदर्शन करते और गुरुदर्शन करने को भी प्रायः साथ २ जाते । गुरुदर्शन करके सीधे राणक वीरधवल और महामण्डलेश्वर लवणप्रसाद की सेवा में उपस्थित होते । वहाँ से लौट कर घर आते और श्रद्धा, भक्ति
मंत्री-भ्राताओं की दिनचर्या भाव से प्रभुपूजन करके उपाश्रय में गुरु का सदुपदेश श्रवण करने के लिये नित्य नियमित रूप से जाते । गुरु, साधु-साध्वियों, संन्यासियों, अतिथियों की वे पहिले अभ्यर्थना, भोजन - सत्कार करते और फिर सर्व परिजनों के साथ श्राप भोजन करते । भोजनसंबंधी व्यवस्थायें समितियें बनाकर की गई थीं। दोनों भ्राताओं के भोजन करने के समय तक या पूर्व दोनों ही समय संध्या और प्रात: भूखों को, वस्त्रहीनों को, अपनों को, दीन और शरणार्थियों को भोजन, वस्त्र दे दिया जाता था । इसमें प्रतिदिन एक लाख रुपया तक व्यय होता था । दोनों भ्राता कभी भी रात्रि को भोजन और जलपान नहीं करते थे और प्रातःकाल भी एक घटिका दिन निकल आने पर दंतधावन श्रादि नियमित क्रियायें करते थे । भोजन कर लेने के पश्चात् दोनों भ्राता अपने २ श्रास्थानकक्षों में (बैठकों में बैठते और क्रमवार सर्व राजकीय तथा निजीय विभागों के आये हुये प्रधानों, कर्मचारियों से भेंट करते और आये हुये पत्रों का उत्तर देते । विवादास्पद प्रश्नों, कंकटों को निपटाते, भेंट करने के लिये आने वाले सज्जनों, सामंतों, मांडलिकों, श्रीमन्तों, विद्वानों, कलाविदों से भेंट करते और उनका यथायोग्य सत्कार करते । विद्वानों को साहित्यिक रचनाओं पर, कलाविदों को कलाकृतियों पर प्रतिदिन सहस्त्रों मुद्रायें पारितोषिक रूप प्रदान करते । प्रांतप्रमुखों, सेनानायकों, प्रमुख गुप्तचरों, सर्व धार्मिक, सामाजिक, तीर्थ-मंदिर, मस्जिद, धर्मशाला, लेखकशाला, पौषधशाला, वापी, कूप, सरोवर, प्रतिमाओं की निर्माणसंबंधी, व्यवस्थासंबंधी समितियों के प्रमुख कार्यकर्त्ता एवं शिल्पियों से भेंट करते, उनके कार्यों का निरीक्षण करते, विवरण सुनते और नवीन आज्ञायें, आदेश प्रचारित करते । वैसे तो सर्व राजकीय एवं निजीय विभाग भिन्न २ योग्य व्यक्तियों के नीचे विभाजित किये हुवे थे, फिर भी प्रत्येक व्यक्ति को महामात्य से भेंट करने की पूरी २ स्वतंत्रता थी। इन कार्यों से निवृत्त होकर दोनों भ्राता राजसभा में जाते और प्रान्तों, प्रमुख नगरों से आयी हुई सूचनाओं से रायक वीरधवल एवं मण्डलेश्वर लवणप्रसाद को सूचित करते, शत्रुसंबंधी गतिविधियों पर चर्चा करते । राजकीय सेनाविभाग, गुप्तचरविभाग जिसके गुप्तचर सर्वत्र साम्राज्य एवं रिपुराज्यों में फैले हुये थे, सुरक्षाविभाग जिसके अधिकार में राज्य के दुर्ग और नवीनदुर्गों का निर्माण, सीमासंबंधी देख-रेख, नवीन सैनिकों एवं योद्धाओं की भत्तीं, पर्याप्त सामरिक सामग्री की व्यवस्था रखने संबंधी कार्य थे, तत्संबंधी प्रश्नों और नवीन योजनाओं पर विचार करते । देश-विदेश में राज्य के विरुद्ध चलने वाली हलचलों पर सोच-विचार करते । ये सर्व मन्त्रणायें गुप्त रखी जाती थीं । महाकवि सोमेश्वर इस प्रकार की प्रत्येक मन्त्रणा में सम्मिलित रहते थे । पत्तन के सामन्तों, राज्य के श्रीमंतों, मांडलिकों, परराज्यों के दूतों से राणक बीरधवल एवं मण्डलेश्वर लवणप्रसाद भी स्वयं भेंट करते और वार्तालाप करते । महामात्य न्याय, सेना, सुरक्षा, राजकोष, धर्मसंबंधी अत्यन्त महत्त्व के विषय राजसभा में राणक वीरधवल के समक्ष निर्णीत करते । राजसभा में वीरों का मान, विद्वानों का सम्मान और सज्जन, साधु-ऋषियों का सत्कार होता था । राजसभा से निवृत्त होकर महामात्य और दंडनायक दोनों अश्वस्थलों, सैनिक शिविरों, अस्त्र-शस्त्र के भण्डारों का निरीक्षण करते । राजकीय कार्यों से निवृत्त होकर ही प्रायः घर लौटते थे। घर लौट कर स्नानादि क्रिया करके भोजन करते । भोजन के पश्चात् नगर में 'चलती हुई धार्मिक संस्थाओं जैसे सत्रागारों, लेखकशालाओं, पौषधगृहों, धर्मशालाओं, दानशालाओं, भोजनशालाओं