SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 290
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ खएड ] : मंत्रीभ्राताओं का गौरवशाली गूर्जर-मंत्री-वंश और सर्वेश्वर महामात्य वस्तुपाल :: [१३६ महामात्य वस्तुपाल के धवल्लकपुर में ही रहने से धवलकपुर थोड़े ही दिनों में भारत के उन प्रमुख नगरों में गिना जाने लगा जो विशालता में, रमणीकता में, सामाजिक-धार्मिक-राजनीतिक-व्यापार-वाणिज्य की दृष्टियों धवल्ल कपुर का वैभव और से धन-सम्पन्नता के कारण जगविख्यात थे। अतिरिक्त इसके धवल्लकपुर अपने दृढ़ महामात्य का व्यक्तित्व साहसी वीर योद्धा, अजेय रणचतुर सेनापतियों के लिये अधिक प्रसिद्ध था । धवल्लकपुर में बहुल संख्यक विशाल मन्दिर, ऊँचे २ राजप्रासाद, गगनचुम्बी महालय एवं अनेक राजभवन बन चुके थे। इन सब के ऊपर वह एक बात थी जो अनेकों युगों में इतिहास नहीं पा सका था। महामात्य वस्तुपाल एक महान् उदार धार्मिक महामात्य था, जो सर्व धर्मों का समान समादर करने वाला और सर्व ज्ञातियों का समान मान करने वाला था। राग-द्वेष, लोभ-मोह, ऊँच-नीच, छोटे-बड़े धनी-निर्धन के भेदों से वह छू तक नहीं गया था। हिन्दू, जैन, मुसलमान और अन्य सर्व धर्मावलम्बी उसको अपना ही नेता समझते थे। धवल्लकपुर में सर्व धर्मों के साधु-संन्यासियों का, सर्व भाषाओं के भारतप्रसिद्ध विद्वानों का, सर्वकलाविशेषज्ञों का सदा जमघट लगा रहता था। बड़े २ विषयों पर आये दिन वाद-विवाद, धर्मों के शास्त्रार्थ, विशेषज्ञों एवं कलावानों में प्रतियोगितायें होती रहती थीं। नगर में स्थल-स्थल पर यात्रियों, विद्वानों, अतिथियों के लिये ठहरने आदि का समस्त प्रबन्ध महामात्य की ओर से होता था। दीन, दुखियों, अपंगों के लिये शरणस्थल, भोजनशालायें, दानगृह खुले हुये थे। नगर के सर्व मन्दिरों में, धर्मस्थानों में अधिकांश द्रव्य महामात्य का व्यय होता था। यह राम-व्यवस्था धवल्लकपुर में ही नहीं, पत्तनसाम्राज्य के अनेक नगर, ग्रामों में प्रसारित होती जा रही थी । सैकड़ों नवीन जैन, शैव, इस्लाम, हिन्दु मन्दिरों का निर्माण, सैकड़ों जीर्णमन्दिरों का उद्धार किया जा रहा था । नवीन प्रतिमाओं की स्थापना, पौषधशाला, धर्मशाला, दानगृह, भोजनशाला, लेखकनिवास, सत्रागार, प्रपायें, वापी, कूप, सरोवर, और ज्ञान-मण्डार प्रसिद्ध एवं उपयुक्त स्थलों पर लक्षों व्यय करके बनवाये जा रहे थे । इसीलिये महामात्य धर्मपुत्र, निर्विकार, उदार, सर्वजनश्लाघनीय, उत्तमजनमाननीय, ऋषिपुत्र, गम्भीर, दातार-चक्रवर्ती, लघुभोजराज, सचिवचूड़ामणि, ज्ञातिगोपाल, ज्ञातिवराह, शान्त, धीर, विचारचतुर्मुख, प्राग्वाटज्ञाति-अलंकार, चातुर्य-चाणक्य, परनारी-सहोदर, रुचिकन्दर्प, आदि गौरवगरिमाशाली चौवीस उपनामों से गुर्जरप्रदेश में ही नहीं, मालवा, राजस्थान, काश्मीर, सिंध, पंजाब, संयुक्तप्रान्त, मध्यभारत, दक्षिणभारत सर्वत्र संबोधित किया जाने लगा था। प्राणग्राहक रिपु भी महामात्य को अपने शिविरों में देखकर उसका मान करते थे और अपने को पवित्र हुआ मानते थे और महामात्य के शिविर में पहुँचकर अपने को सुरक्षित समझते थे । वधूयें, पुत्रिये उसको अपना पिता और भ्राता मानती थी। इस प्रकार प्राग्वाटज्ञाति में उत्पन्न भारतमाता का यह सुपुत्र समस्त भारतवासियों का बिना ज्ञाति, धर्म, मत, प्रदेश, प्रान्त, राज्य के भेदों के एकसा प्रेम, स्नेह, सौहार्द प्राप्त कर रहा था। संक्षेप में कहा जा सकता है कि महामात्य वस्तुपाल जैसा सच्चा ऐश्वर्यशाली था, वैसा ही सच्चा जैन था, सरस्वती का अनन्य भक्त था, एकनिष्ठ कलाप्रेमी था, अजेय योद्धा था, सफल राजनीतिज्ञ था, सच्चा देशभक्त था, सच्चा राष्ट्रसेवक था । वह श्रीमन्त योगीश्वर था; क्योंकि उसका तन, मन और सर्व वैभव ज्ञाति, समाज, देश और धर्म की सेवा में व्ययशील था जो ईश्वर की सच्ची आराधना, उपासना है। प्र० को० व० प्र०१२४)१२५) पृ०१०४,१०५ व० च० प्र० २ पृ०२० श्लोक ६६ से पृ० २४ श्लो० २५ पु० प्र०सं० वि० ती० क०व०प्र०। की कौ० (प्रस्तावना) पृ० ३६
SR No.007259
Book TitlePragvat Itihas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherPragvat Itihas Prakashak Samiti
Publication Year1953
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy