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:: प्राग्वाट-इतिहास ::
[द्वितीय
ऐसे निर्लोभी, संयमी, देशसेवक राजा और धीर-बीर, नीतिज्ञ अमात्य पाकर एक बार गूर्जरदेश धनी हो उठा । लेकिन बाहर से आये हुए यवनशासक भारतभूमि में कहीं भी पनपता हुआ ऐसा समृद्ध साम्राज्य कैसे सहन कर सकते थे। अतिरिक्त इसके मालवा और दक्षिण के शक्तिशाली सम्राट् भी गूर्जरभूमि की बढ़ती हुई उन्नति को तिर्की दृष्टि से देख रहे थे।
गुप्तचरविभाग का वर्णन देना कतिपय दृष्टियों से अत्यन्त आवश्यक प्रतीत होता है। महामात्यपद पर आरूढ होते ही वस्तुपाल ने इस विभाग की अति शीघ्र स्थापना की थी और विश्वासपात्र स्वामीभक्त, चतुर, बहुभाषाभाषी, बहुभेषपड, वाक्पटु और प्राणों पर खेलने वाले गुप्तचरों को रक्खा था । वस्तुपाल की सम्पूर्ण सफलता की कुंजी यही बिभाग था । वस्तुपाल अपने गुप्तचरों का बड़ा मान करता था। गुमचरों की अनुपस्थिति में गुप्तचरों के परिवार का सम्पूर्ण पोषण राज्यकोष से किया जाता था। तेजपाल का पुत्र लावएयसिंह गुतचर-विभाग का अध्यक्ष था। इस विभाग के प्रत्येक कार्यवाही से तथा साम्राज्य में चलती शत्रु-मित्र की प्रत्येक हलचल से वस्तुपाल को अवगत रखना इस विभाग के अध्यक्ष का प्रमुख कर्त्तव्य था । वस्तुपाल जहाँ कहीं भी हो इस विभाग की दैनिक कार्यवाही का विवरण उसको नियमित मिलता रहता था और वस्तुपाल के संकेत, आदेश, सम्मतियाँ एवं आज्ञायें गुप्तचर सर्वत्र सम्बन्धित व्यक्तियों को पहुँचाते थे । वस्तुपाल यद्यपि खंभात चला गया था, फिर भी सौराष्ट्र के रणों का, धवलकपुर का, तथा शत्रुराजा एवं सामंतों की हलचलों और योजनाओं का पता उसको नियमित और यथावत् मिलता रहता था । संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि गूर्जरभूमि पर होने वाले रणों में, पत्तन में, धवलकपुर में, शत्रुओं की गोष्ठियों में सर्वत्र वस्तुपाल के गुप्तचर विद्यमान रहते थे। वस्तुपाल भी राणक वीरधवल, मंडलेश्वर लवणप्रसाद, दंडनायक तेजपाल तथा महाकवि राजगुरु सोमेश्वर को समय समय पर मुख्य २ सूचनायें पहुँचाता रहता था और उन्हें अपनी योजनाओं से प्रत्येक समय अवगत रखता था तथा तदनुसार अपने आदेशों एवं संकेतों को पहुँचाया करता था । इस विभाग का कार्य यंत्रवत् नियमित एवं प्रबंधपूर्ण था । गुप्तचर नाम एवं वेष परिवर्तित कर राजस्थान, मालवा, सौराष्ट्र, दक्षिण, संयुक्तप्रान्त में भ्रमण करते थे । कहीं जाकर वस जाते थे, कहीं शत्रुराजा के विश्वासपात्र सेवक बनकर रहते थे, कहीं शत्रुराजाओं एवं सामंतों के श्रद्धेय साधु, संन्यासी बन कर रहते थे । यादवगिरि के राजा सिंघण के आक्रमण को विफल करने वाले, यवनसेनाओं का मंडोर, रणथंभोर पर हुये आक्रमणों के समाचार देने वाले, बादशाह की वृद्धा माता की हजयात्रा के लिये गूर्जरभूमि में होकर जाने की सूचना देने वाले, सिंघण, लाट के राजा शंख एवं मालवपति देवपाल के आयोजित मित्रसंघों को फूट डालकर तोड़ने वाले, म्लेच्छ आक्रमणकारी के प्रयास को नष्ट करने वाले, गूर्जरभूमि के शत्रु बने हुए सामंतों, माण्डलिकों एवं ठक्कुरों की दुष्प्रवृत्तियों एवं दुर्भावनाओं से साम्राज्य की रक्षा करने वाले तत्त्वों को सजग रखने वाले ये ही गुप्तचर थे।
ह० म०म० सर्ग०२ पृ०१० से २४
ह० म० म० में कुवलयक, शीघ्रक, निपुणक, सुवेग, सुचरित्र, कुशालक और कमलक आदि जो गुप्तचरों के नाम मिलते हैं, अगर हम इनको कल्पित पात्र भी मान लेते हैं, फिर भी यह तो स्वीकार करना ही पड़ेगा कि बिना गुप्तचर विभाग के हुये, कल्पित नाम देना भी लेखक को स्मरण कैसे आता! उक्त नाटक की भूमिका एवं रचना से स्पष्ट है कि गुप्तचर विभाग अत्यन्त ही समुन्नत एवं सुदृढ़ स्थिति में था।