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:: प्राग्वाट - इतिहास ::
बैठ कर लिखना और लिखानेवाले का इतनी दूरी पर रह कर लेखक को स्वतंत्रता दे देना यद्यपि लेखक की ईमानदारी और उसके पूर्व विश्वस्त जीवन पर तो अवलंबित है ही, फिर भी यह सह लेना प्रति ही कठिन है । आप में ये गुण थे, जब ही प्राग्वाट - इतिहास का भगीरथ कार्य मेरे जैसे नवयुवक लेखक से जैसा तैसा बन सका । यह इतिहास जैसा भी बना है, वह गुरुदेव के प्रभाव और आपके मेरे में पूर्ण विश्वास के कारण ही संभव हुआ है - इतिहास का प्रकाशन ताराचन्द्रजी के मानस में अपने पूर्वजों के प्रति कितना मान है, वर्तमान एवं भावी संतान के प्रति कितनी सुधार दृष्टि एवं उन्नत भावनायें हैं का सदा परिचायक रहेगा ।
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श्री ' पा० उ० इ० कालेज', फालना के साथ आपका संबंध और फालना - कॉन्फ्रेन्स में आपकी सेवा - आपको बहुमुखी परिश्रमी देख कर वि० सं० २००३ में श्री पार्श्वनाथ उम्मेद इन्टर कालेज', फालना की कार्यकारिणी समिति में आपको सदस्य बनाये गये । वि० सं० २००६ में जब फालना में उक्त विद्यालय के विशाल मैदान में श्री जैन श्वेताम्बर कॉन्फ्रेन्स का सत्रहवां अधिवेशन था, तब भी आप अधिवेशन समिति के मानद मंत्रियों में थे और आपने अपना पूरा सहयोग दिया था ।
वि० सं० २००४ में आचार्य श्रीमद् यतीन्द्रसूरिजी का चातुर्मास खिमेल में था । खिमेल स्टे० राणी से दो मील के अन्तर पर ही है । उक्त श्राचार्यश्री की अभिलाषा श्री राणकपुरतीर्थ की चैत्र पूर्णिमा की यात्रा करने की हुई थी । एतदर्थ आपने और आपके लघु भ्राता श्री मानमलजी तथा खिमेलनिवासी श्री राणकपुर की संघ यात्रा श्रीभीमराजजी भभूतचन्द्रजी ने मिलकर श्री राणकपुरतीर्थ की यात्रा करने के लिये उक्त आचार्यश्री की तत्त्वावधानता में चतुर्विध-संघ निकाला। इस संघ में तेवीस साधु-साध्वी और लगभग १५० (एक सौ पचास) श्रावक, श्राविका संमिलित हुये थे । यह संघ - यात्रा पन्द्रह दिवस में पूर्ण हुई थी। इस संघ का सर्व व्यय उक्त तीनों सजनों ने सहर्ष वहन किया था ।
कुछ वर्षों से वाकली ग्राम के श्री संघ में दो तड़ पड़ी हुई थी। छोटी तड़ में केवल २०-२५ घर ही थे
उन्नति का एवं अच्छा कार्य बड़ी कठिनाई से वाकली में श्रीमद् मुनिराज मंगलविजयजी का अग्रगण्य सद्गृहस्थों का था । इस पर संगठन -
और बड़ी तड़ में समस्त ग्राम । इन तड़ों के कारण वाकली में कोई हो सकता था । वि० सं० २००६ में कल्टी में तड़ों में मेल करवाना चातुर्मास करवाने का भाव वाकली के प्रिय महाराज मंगलविजयजी ने यह कलम रक्खी कि अगर दोनों तड़ एक होकर विनती करें तो ही मैं वाकली में चातुर्मास कर सकता हूं, अन्यथा नहीं । वाकली की दोनों तड़ का आप (ताराचन्द्रजी) में बड़ा विश्वास है । आप दोनों तड़ों में मेल करवाने के कार्य को लेकर सद्प्रयत्न करने लगे । गुरुदेव के पावन प्रताप से आपको सफलता मिल गई और कुसंप नष्ट हो गया और संघ में एकता स्थापित हो गई । फलस्वरूप श्रीमद् मंगलविजयजी महाराज सा० का चातुर्मास बड़े ही आनन्द के साथ में हुआ और खूब धर्म- ध्यान हुआ और अद्वितीय श्रानन्द वर्षा ।
आपकी धर्मपत्नी भी बड़ी गुरुभक्ति एवं तपपरायणा थी । उसने रोहिणीतप किया था, जिसका उजमणा शान्तिस्नात्रपूजादि के सहित वि० सं० १६६३ में बड़ी धूम-धाम से किया गया था। आपकी ओर से तथा आपके आपकी धर्मपत्नी की धर्मपरा- परिवार के बंधुगणों की ओर से दश (१०) नवकारशियां की गई थीं तथा उस ही यणता व उनका देहावसान. शुभावसर पर श्री वासुपूज्य भगवान् की चांदी की प्रतिमा आपने बनवाकर प्रतिष्ठित करवाई थी और अत्यन्त हर्ष और आनन्द मनाया गया था । गत वर्ष वि० सं २००७ में ही आपकी धर्मपत्नी का