________________
:: शाह ताराचन्द्रजी ::
है जो समिति ने कमेटी के समक्ष रक्खा है । समिति जनरल-कमेटी से निवेदन करती है कि शेष रहे १३६ फोटओं को भरवाने का कार्य वह तुरन्त सम्पन्न करवा दें।' सदस्य.
प्रधान. हिम्मतमलजी हंसाजी, कुन्दनमल ताराचन्द्रजी, मुलतानमल संतोषचन्द्रजी ताराचन्द्र मेघराजजी
प्राग्वाट-इतिहास की रचना के कारण हम दोनों एक-दूसरे के बहुत ही निकट रहे हैं और इस कारण मुझको आपका अध्ययन करने का अवसर बहुत ही निकट से प्राप्त हुआ है । आप सतत् परिश्रमी, निरालसी, और कर्तव्यनिष्ठ हैं । जो कहा अथवा उठाया वह करके दिखाने वाले हैं। ये गुण जिस व्यक्ति में होते हैं, वह ही अपने जीवन में समाज, धर्म एवं देश के लिए भी कुछ कर सकता है । उधर आप कई एक व्यापारिक झंझटों में भी उलझे रहते हैं
और इधर जो कार्य हाथ में उठा लिया है, उसको भी सही गति से आगे बढ़ाते रहते हैं। दोनों दिशाओं में अपेक्षित गति बनाये रखने का गुण बहुत कम व्यक्तियों में पाया जाता है। अगर घर का करते हैं, तो उन्हें पराया करने में अवकाश नहीं और पराया करने लगे तो घर का नहीं होता। आप पराया और अपना दोनों बराबर करते रहते हैं और थकते नहीं हैं, विचलित नहीं होते हैं । इतिहास-सम्बन्धी साधन-सामग्री के एकत्रित करने में आपने कई एक पुस्तकालयों से, प्रसिद्ध इतिहासकारों से, अनुभवी आचार्य, साधु मुनिराजों से पत्र-व्यवहार किया । जहाँ मिलना अपेक्षित हुआ, वहाँ जाकर के मिले भी। जैनसमाज के प्रायः सर्व ही प्रसिद्ध एवं अनुभवी, इतिहासप्रेमी जैनाचार्यों को आपने इतिहास-सम्बन्धी अनेक प्रश्न लिखकर भेजे और उनसे मिले भी। साधनसामग्री जुटाने में आप से जितना बन सका, उतना आपने किया। इधर मेरे साथ भी आपने बड़ी ही सहृदयता का सम्बंध बनाये रक्खा । जब मैंने बागरा छोड़ दिया था । मैं आपके आग्रह पर श्री 'वर्द्धमान जैन बोर्डिंगहाऊस' में गृहपति के स्थान पर नियुक्त होकर आया और वहाँ ता०६ अप्रेल सन् १९४६ से ६ नवम्बर सन् १९५० तक कार्य करता रहा । गृहपति और प्राग्वाट-इतिहास लेखक का दोनों कार्य वहाँ मैं करता रहा । वहाँ अनेक झंझटों के कारण इतिहास-लेखन के कार्य को बहुत ही क्षति पहुँची, परन्तु आपने वह सब बड़ी शांति और धैर्यता से सहन किया और करना भी उचित था, क्योंकि उधर छात्रालय के भी आप ही महामन्त्री हैं और इधर इतिहास भी आप ही लिखाने वाले । इतिहास के ऊपर आपका इतना अधिक राग और प्रेम है कि अगर आप पढ़े-लिखे होते, तो सम्भव है लेखक भी आप ही बनते । बस पाठक अब समझ लें कि आपके भीतर कितना उत्साह, कायें करने की शक्ति, धैर्य और सहनशीलतादि गुण हैं। लिखना और लिखाना दोनों भिन्न दिशायें हैं। जिसमें फिर लिखाने की दिशा में चलने वाले में शांति, धैर्य, समयज्ञता, व्यवहार-कुशलता और भारी सहनशक्ति होनी चाहिए । जिसमें ये गुण कम हों, वह कभी भी इतिहास जैसे कार्य को, जिसमें आशातीत समय, अपरिमित व्यय
और अधिक श्रम लगता है भली-भांति सम्पन्न नहीं करा सकता है और बहुत सम्भव है कि व्यापारियों की जैसी छोटी-छोटी बातों पर चिड़ पड़ने की आदत होती है, जो विषय की अज्ञानता से लेखक की कठिनाइयों को नहीं समझ सकते हैं लेखक से बिगाड़ बैठे और कार्य मध्य में ही रह जाय । आपको यद्यपि इस बात से तो मेरी ओर से भी निश्चितता थी, क्योंकि हम दोनों के गुरुदेव श्रीमद् विजययतीन्द्रसूरिजी महाराज साहब साक्षिस्वरूप रहे हैं । फिर भी मैं स्वीकार करता हूं कि आप में वे गुण अच्छी मात्रा में हैं जो लिखाने वाले में होने ही चाहिए ।
सुमेरपुर छोड़ कर मैं भीलवाड़ा आगया और तब से यहीं इतिहास-लेखन का कार्य कर रहा हूँ इतने दूर