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________________ ___१३४ ] :: प्राग्वाट-इतिहास: [द्वितीय __ अतिशय प्रभावना दी,अतिशय दान दिया और अतिशय संघभक्ति की। अंब, अवलोकन, शांब, प्रद्युम्न नामक पर्वतों पर अनेक धार्मिक कृत्य करवाये, धर्मस्थान बनवाये, जो समय पाकर निम्न प्रकार पूर्ण हुयेः १ श्री शत्रुञ्जयमहातीर्थावतार श्री आदितीर्थङ्कर श्री ऋषभदेवप्रासाद, २ स्तम्भनकपुरावतार श्री पार्श्वनाथदेवचैत्य, ३ सत्यपुरावतार श्री महावीरदेवचैत्य, . ४ प्रशस्तिलेख सहित श्री कश्मीरावतार श्री सरस्वती नामक चार देवकुलिका, ५ अजितनाथ तथा वासुपूज्यस्वामी के दो बिंब, ६ अम्ब, अवलोकन, शांव और प्रद्युम्न शिखरों पर श्री नेमिनाथ भगवान् द्वारा विभूषित चार देवकुलिका, ७ आदिनाथ-चैत्यालय मंडप में अपने पितामह चंडप्रसाद की विशाल प्रतिमा, ८ पितामह सोम और पिता आशराज की दो अश्वारूढ़ मूर्तियाँ, ह तीन मनोहर तोरण, १० अपने पूर्वज, अग्रज, अनुज, पुत्रादियों की मूर्तियाँ, ११ गर्भग्रह के द्वार की दक्षिणोत्तर दिशा में अपनी और तेजपाल की गजारूढ़ दो प्रतिमा, १२ सुखोद्घाटनकस्तम्भ । संघ जीर्णगढ़तीर्थ पर बहुत दिनों तक ठहर कर पुनः प्रभासपत्तन, सोमेश्वरपुर होता हुआ धवलकपुर पहुंचा। महाराणक वीरधवल तथा दण्डनायक तेजपाल ने बृहद् समारोह के साथ संघपति वस्तुपाल का स्वागतोत्सव किया । संघपति ने संघ में आये हुए जनों को विशाल भोज देकर विदा किया। प्रा० ० ले० सं०भा० २ ले०३८से ४३ [गि० प्र०] उक्त प्रशस्तियां यद्यपि वि० सं० १२८८ की हैं । परन्तु जैसा ऊपर कहा जा चुका है कि जैन समाज में कोई धर्मकृत्य करवाना होता है तो उसकी प्रथम संघ के समक्ष प्रतिज्ञा की जाती है। यह रीति हो जाने के पश्चात् वह धर्मकृत्य किया जाता है। सर्व उपलब्ध ग्रन्थों में महामात्य वस्तुपाल की सिद्धगिरि-संघयात्राओं का वर्णन कथा-रूप से किया गया है। किस संवत् की। संघयात्रा का कौनसा, किस ग्रन्थ में वर्णन है प्रमुखतः वर्णन कई ग्रन्थों में मिलते हुवे होने पर भी निश्चित करना अत्यन्त कठिन है। जैसे 'व०च०' के कर्ता ने संघयात्रा का वर्णन करते हुये वस्तुपाल द्वारा सिद्धगिरि पर विनिर्मित करवाये हुये सर्व ही धर्मस्थानों, मूर्तियों का वर्णन कर दिया है, यद्यपि वे भिन्न-भिन्न संवतों में बनी हैं। 'व०च' में सब ही वर्णन इसी प्रकार के हैं। संघ में संमिलित हुये प्रत्येक जाति के वाहन, श्रावक, साधु, सामंत, सैन्य, रथ, हस्ति, ऊंट, घोड़े आदि की निश्चित संख्या दी है,जो अन्य ग्रन्थों में वर्णित संख्याओं से कहीं मिलती है और कहीं नहीं और किसी में है ही नहीं। प्रतीत ऐसा होता है कि व०च० के कर्ता ने उपलब्ध सर्व ग्रन्थों के आधार पर तथा वस्तुपाल के वंशजों एवं वृद्धजनों के अनुभव और स्मृतियों के आधार पर व०च० की रचना की है। 'संवत्सरोऽस्ति मन्त्रीन्द्र, सप्ताश्वरवि (१२७७) समिते' ॥२६।। प्र० ५ पृ०७४ से सिद्ध है कि यह संघयात्रा सं०१२७७ की है और अन्य बात यह भी है कि 'वच' में केवल एक संघयात्रा का ही वर्णन है। 'व०च.' की रचना 'विक्रमाकोंन्मिते वर्षे, विश्वनंदषिसंख्यया (१४६७) में चित्रकूटपुरे पुण्ये ।।११।। प्र०८१०१३५ तेजपाल की मृत्यु के लगभग ६६ वर्ष पश्चात् ही हुई है, जब कि वस्तुपाल की संघयात्राओं की कथायें घर-घर कही जा रही होंगी । इतिहास-रचना तो पूर्वाचार्यो का कम ही दृष्टिकोण रहा है, अतः आश्चर्य नहीं 'व०च०' में वर्णित संघयात्रा को वस्तुपाल द्वारा की गई सर्व संघयात्राओं की महिमा, विशेषता, शोभा से अलंकृत कर दिया गया हो । 'की० कौ०, व०वि०, प्र०को०, प्र०चि, घ०भ्यु०, सु०सं०, पु०प्र०सं०' इन सर्व यन्थों में वर्णन तो प्रमुख संवत् १२७७ की संघयात्रा को ही लेकर किया गया है, परन्तु यशस्वी नायक के यश का वर्णन करते समय वे एक साथ जितना लिख सके उतना लिख गये प्रतीत होता है।
SR No.007259
Book TitlePragvat Itihas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherPragvat Itihas Prakashak Samiti
Publication Year1953
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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