________________
खण्ड )
: मंत्रीभ्राताओं का गौरवशाली गूर्जर-मंत्री-वंश और श्री सिद्धाचलादि तीर्थो की प्रथम संघयात्रा :: [१३३
एक दिन एक मूर्तिकार संघपति की माता कुमारदेवी की अति सुन्दर मूर्ति बनाकर लाया। महामात्य वस्तुपाल अपनी माता की मूर्ति देखकर रोने लगा और कहने लगा कि आज मेरी माता होती तो वह अपने हाथों से यह सर्व मंगलकार्य करती और संघ की सेवा कर सर्वसंघ की प्रसन्नता एवं मेरे कल्याण का कारण होती, लेकिन कर्मगति विचित्र है। इस पर मलधारी श्रीमद् नरचन्द्रसूरि ने महामात्य को समझाया और आशीर्वाद देते हुये कहा कि पुरुषों के सर्व मनोरथ पूर्ण नहीं होते हैं । संघ अष्टाह्निका-तप करके गिरनारतीर्थ की यात्रा को रवाना हुआ। मार्ग में अनेक नगर, ग्रामों में संघपति महामात्य ने जो सुकृत के कार्य किये, उनमें से कुछ इस प्रकार हैं जो यथासमय पूर्ण हुए।
१ तालध्वजपुर में शिखर पर आदिनाथ-मन्दिर बनवाया । २ मधुमति में जावड़शाह के महावीर-मन्दिर में ध्वज और स्वर्ण-कलश चढ़ाये । ३ अजाहपुर में मन्दिर का जीर्णोद्धार तथा नववाटिका करवाई। ४ कोटीनारीपुर में श्री नेमिनाथमन्दिर में ध्वज और स्वर्ण-कलश चढ़ाये । ५ देवपत्तन में श्री चन्द्रप्रभस्वामी की विशेष धूम-धाम से पूजा की और पौषधशाला पनवाकर उसमें चन्द्र
प्रभ स्वामी की मूर्ति प्रतिष्ठित की। ६ सोमनाथपुर में महाराणक वीरधवल के श्रेयार्थ श्री सोमेश्वर महादेव की पूजा की तथा माणक्यखचित
मुण्डमाला अर्पित की । सत्रालय, वेदपाठकों के लिये ब्रह्मशाला बनवाई। ७ वामनस्थली में मन्दिरों का जीर्णोद्धार करवाया। इस प्रकार संघपति महामात्य वस्तुपाल अनेक धर्मकृत्य करता हुआ जीर्णदुर्ग (जूनागढ़) तीर्थ पहुँचा। .
संघपति महामात्य ने उज्जयन्तगिरि की उपत्यका में पहुँच कर तेजपाल के नाम पर बसाये गये तेजलपुर में विश्राम किया। तेजलपुर में श्राशराजविहार और कुमारदेवी-सरोवर की अनुपम शोमा देखकर संघ अति प्रसन्न हुआ। संघपति महामात्य के ठहरने के लिये धवल-गृह नामक एक सुन्दर प्रासाद बनवाया गया था। महामात्य ने देखा कि साधुओं के ठहरने के लिये कोई पौषधशाला नहीं बनी हुई है, शीघ्र एक पौषधशाला बनवाना प्रारम्भ किया जो दो दिनों में बनकर तैयार हो गई। तब तक महामात्य भी साधु गुरुओं के साथ बाहर मैदान में ही ठहर कर तीर्थाराधना करता रहा । पहुँचने के दूसरे दिन प्रातःकाल संघ गिरनारपर्वत पर चढ़ा और नेमिनाथ भगवान की प्रतिमा का भक्तिभाव से कीर्तन, अर्चन, पूजन किया। है कि अमुक धर्मस्थान कब और कैसे बने। प्र०को० तथा पु०प्र०सं० में भी यात्रा-वर्णन करते समय उक्त धर्मस्थानों के निर्माण की ओर कोई संकेत किया हुआ नहीं मिलता है।
वच० में प्र०६ के अन्त में वस्तुपालतेजःपाल द्वारा विनिर्मित तीर्थगत धर्मस्थानों का वर्णन एक साथ कर दिया गया है।
'तदा सूत्रधारेणकेन दारवी कुमारदेव्या मातुतिमहन्तकायनवीनघटिता दृष्टौ कृता । . ."दृष्ट्वा रुदित...। 'यदि तु सा मे माता इदानी स्यात् , तदा स्वहस्तेन मङ्गलानि कुर्वत्यास्तस्या मम च मङ्गलानि कारयतः "लोकस्य कियत्सुखं भवेत् । अष्टाहिकायां गतायां ऋषभदेवं गद्गदोक्त्वा मन्त्री आपृच्छत्-'
प्र०को० व. प्र० १३६ पृ०११४-११५ 'एवमष्टदिनी कुर्वचानापूजामहोत्सवान् । 'नवीनघटितां मातुमूति ज्योतिरसाश्मना' ॥६॥ 'वीक्ष्य म्लानमुखाम्मोजो, रुरोद निभृतध्वनि ॥६॥
वच० प्र०६ पृ०६३ की०कौ० सर्ग०६ श्लोक ७० से ७३ से प्रतीत होता है कि गिरनारतीर्थ से लौटते समय ये सुकृत किये गये थे। व०च०प्र०६ श्लोक २० पृ०६५ से श्लोक ५८पृ०६६