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:: प्राग्वाट-इतिहास :
[द्वितीय
— महामात्य खम्भात से रवाना हुआ । उसके साथ में अनन्त धनराशि से भरे ऊँट, घोड़े और शकट थे, जिनमें अपार सोना और चाँदी, असंख्य मौक्तिक, माणिक, हीरे, पन्ने थे। तेजतुरी नाम की एक स्वर्ण-धूल से भरी अनेक धवलकर में महामात्य बैल-गाड़ियाँ थीं। यह धूल और अधिकांश धन नौवित्तिक सदीक के यहाँ से प्राप्त का प्रवेशोत्सव
किया हुआ था । धवल्लकपुर के आबालवृद्ध नर और नारी तथा स्वयं राणक वीरधवल, महामण्डलेश्वर राणक लावण्यप्रसाद तथा दंडनायक तेजपाल, महाकवि राजगुरु सोमेश्वर तथा अन्य सर्व प्रतिष्ठित पुरुषों ने महामात्य का नगर-प्रवेश बड़ी धूमधाम और सजधज से करवाया । राणक वीरधवल एवं मण्डलेश्वर लावण्यप्रसाद ने अति प्रसन्न होकर महामात्य को पंचांगप्रसाद तथा तीन उपाधियाँ प्रदान की-सदीकवंशसंहारी, शंखमानविमर्दन, वराहावतार तथा स्वर्ण-धूल तेजतुरी और अन्य बहुमूल्य मौक्तिक, माणिक पारितोपिक रूप में प्रदान किये । शेष द्रव्य राज्यभण्डार में रक्खा गया।
धवल्लकपुर में कुछ दिनों तक ठहर कर महामात्य पुनः अपने वीरों सहित खम्भात पहुँचा। वहाँ पहुँच कर उसने पहले वेलाकूलप्रदेश के (चंदर) राजाओं के शत्रुओं का दमन किया और शान्ति स्थापित कर वेलाकूलप्रदेश
जना में गूर्जरसम्राट् की सत्ता स्थापित की। खंभात में गुरु नरचन्द्रसूरि के सदपदेश से दानकलप्रदेश के शत्रों का शालार्य स्थापित की। भृगुकच्छ में कैलाशपर्वत की समता करने वाले एक अति दमन तथा खम्भात में अनेक विशाल प्राचीन जिनमन्दिर में सुव्रतस्वामी की धातुप्रतिमा विराजमान की और मंदिर का धर्मकृत्यों का करना* जीर्णोद्धार करवाया। मन्दिर के द्वार को तोरण से मंडित करवाया, दो सत्रागारों से उसको युक्त किया, परिकोष्ट बनवाया और उसमें वापी, कूप और प्रपा करवाई, बीस जिनेश्वरों की प्रतिमायें स्थापित की। अतिरिक्त इनके चार जिनमन्दिर और बनवाये, जिनमें शकुनिविहार-चैत्य अधिक प्रसिद्ध है। उनमें तीर्थङ्करों की धातु प्रतिमायें स्थापित की, देवकुलिकायें बनवाई । उनको स्वर्ण-कलश एवं ध्वजादण्डों से सुशोभित किया । अपने पूर्वजों के अभिकल्याणार्थ नर्मदा नदी के तट (रेवापगातट) पर पाँच लाख, शुक्लतीर्थ पर दो लाख का दान-पुण्य किया । ब्राह्मण वेदपाठकों के लिए तथा अन्य जनों के लिये सत्रागार बनवाये । भृगुकच्छ में महामात्य ने कुल दो करोड़ रुपये धर्मार्थ व्यय किये । राज्य-व्यवस्था सुदृढ़ की और धवल्लकपुर लौट आया।
सिद्धाचलादितीर्थों की प्रथम संघ-यात्रा और महामात्य की अमूल्य तीर्थ-सेवायें
वि० सं० १२७७
एक दिन महामात्य वस्तुपाल प्रातःकाल स्नानादि से निवृत्त होकर दर्पण के आगे खड़ा होकर वस्त्र धारण कर रहा था कि शिर में एक श्वेत बाल देखकर उसने लम्बी श्वांस खींची और विचारने लगा कि अभी तक न ही तो
_ मैंने तीर्थयात्रायें ही की हैं और न ही भव-बन्धन को काटने वाला कोई प्रखर पुण्य ही संघयात्रा का विचार
किया है और यमराज का सन्देश तो यह आ पहुंचा है। ऐसा सोचकर वह उपाश्रय
प्र०को०व०प्र०१२७) पृ०१०६ । पु०प्र०संवन्ते० प्र०१४६) पृ०५६।१२० च० प्र०४ श्लोक ४५ से ७० पृ० ५८, ५६