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खण्ड]
:: मंत्री भ्राताओं का गौरवशाली गूर्जर-मंत्री वंश और मन्त्री भ्रताओं का अमात्य-कार्य ::
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इस संकट के समय गुप्तचरों ने अत्यन्त सराहनीय कार्य किया। मालवनरेश और सिंघण की बढ़ती हुई गति को गुप्तचरों ने भेदनीति चलाकर शिथिल कर दिया । फलतः वे निश्चित समय तक खम्भात तक पहुँचने में असफल रहे । परिणाम यह रहा कि लाटनरेश शंख को अकेला युद्ध में उतरना पड़ा । यद्यपि इस युद्ध में महामात्य वस्तुपाल के भुवनपाल, वीरम, चाचिंगदेव, सोमसिंह, विजय, भोमसिंह, भुवनसिंह, विक्रमसिंह, अभ्युदयसिंह (हृदयसिंह), कुन्तसिंह जैसे महापराक्रमी वीर योद्धा वीरगति को प्राप्त हुये, परन्तु शंख का सैन्य गूर्जरसैन्यों की वीरता के समक्ष अधिक नहीं ठहर सका और भाग खड़ा हुआ ।१ महामात्य वस्तुपाल और शंख में चार दिन तक भयंकर रण हुआ और अन्त में शंख परास्त हुआ ।२ शंख अपने प्राण लेकर भाग गया । शंख को परास्त हुआ सुनकर मालवनरेश और सिंघण की सेनायें पुनः अपने २ राज्यों को लौट गई।
महामण्डलेश्वर लावण्यप्रसाद वीरधवल की सहायतार्थ पहुँचा । मरुदेश के राजागणों ने जब शंख की पराजय, सिंघण एवं मालवनरेशों की लौटे हुये सुना तथा महामण्डलेश्वर लावएयप्रसाद को भी वीरधवल की सहायतार्थ आया हुआ सुना तो वे संधि करने को तैयार हो गये । मण्डलेश्वर लावण्यप्रसाद ने उनसे संधि कर ली और उन्होंने गूर्जरसम्राटों के सामन्त बनकर रहना स्वीकार कर लिया । आगे चलकर ये चारों मरुदेश के राजा गूर्जरसम्राटों के अति स्वामीभक्त एवं असमय में प्राणों पर खेलकर सहायता करने वाले सिद्ध हुये । लावण्यप्रसाद मरुराजाओं से संधि कर खम्भात पहुँचा और पराजित हुये लाटनरेश शंख से सन्धि कर धवल्लकपुर में लौट आया । राणक वीरधवल और दण्डनायक तेजपाल उससे पूर्व धवलल्लकपुर में पहुँच चुके थे। ____ महामात्य वस्तुपाल भी अब खम्भात से धवल्लकपुर आने की तैयारी कर रहा था। सर्वत्र गूर्जरभूमि में ही नहीं, दूर-दूर तक अन्य प्रान्तों एवं राज्यों में वस्तुपाल की कुशल नीति एवं तेजपाल की वीरता की प्रसिद्धि फैल गई थी। एक वर्ष के अति अल्प समय में ही इन दोनों कुशल भ्राताओं ने गूर्जरसाम्राज्य में शान्ति स्थापित कर दी। वाह्य शत्रुओं का भय भी कुछ काल के लिये नष्ट हो गया । गूर्जरसैन्य को अजय एवं असंख्य बना दिया । गूर्जरसम्राट भीमदेव द्वितीय की शोभा एक बार पुनः पूर्ववत् स्थापित हो गई। गूर्जरभूमि एक बार पुनः सुख और शान्ति का अनुभव करने लगी।
की० कौ० सर्ग ५ श्लोक ४८ से६६
'Vastupala and Tajahpala's son Lavanyasimba stood the ground. In the meantime Singhana and Devapala fell out and withdrew. Vastupala making prudence the better part of valour, entered into a treaty with Sankha.'
G.G. Part lll P. 217. २-'एवं दिन ३,चतुर्थदिने प्रहरेक समये मन्त्रिणा पाश्चात्यस्थेन जानुना लत्तादानात् शङ्खः पातितः । तत्कालं शिरश्छेदमकरोत् ।
पु० प्र० सं १४६) पृ०५६ व० वि के कर्ता शंख का भागना तथा की० कौ० में मोमेश्वर महाकवि शंख के साथ संधि करने का वर्णन करते हैं । पु० प्र०सं० के इस निबंध के कर्ता ने शंख का शिरोच्छेद किया गया का वर्णन कर अतिशयोक्ति की है ऐसा प्रतीत होता है। सोमेश्वर तथा बालचन्द्रसरि महामात्य के समकालीन थे; अतः उनका कथन अधिक मान्य है।।
'श्रीवस्तुपालसचिवादचिरात्प्रणष्टः शंखस्तथा पथि विशृङ्खलवाहवेगः। तत्पृष्ठयातभयभङ्गरचित्तवृत्तिःश्वास यथा भृगुपुरे गत एव भेजे ॥१०॥
व०वि० सर्ग०६पृ०२८