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:: प्राग्वाट-इतिहास::
[द्वितीय
लावण्यप्रसाद से शत्रुता थी और जो बाघेलाशाखा की उन्नति नहीं चाहते थे, जिनमें चन्द्रावती के परमार, नाडौल के चौहान, गौडवाड़ का चौहान राजा धांधल तथा जालोर के राजा थे। ये लावण्यप्रसाद पर एक ओर से आक्रमण करने को रवाना हुये । गोध्रानरेश घोघुल भी इसी प्रतीक्षा में था कि सिंघण और मालवपति के आक्रमणों के समय वह भी वीरधवल पर एक ओर से आक्रमण करेगा; लेकिन वह तो कुछ ही समय पूर्व दंडनायक तेजपाल के हाथों कैद होकर मृत्यु को प्राप्त हो चुका था। गूर्जरनिवासी मातृभूमि पर चारों ओर से होते हुए आक्रमण देखकर घबड़ा उठे। सर्वत्र गुजरात में खलबली मच गई। यादवनरेश सिंघण के नाममात्र से गूर्जरनिवासी लतावत काँपते थे, क्योंकि सिंघण शत्रुजनता के साथ दुर्व्यवहार करने में सर्वत्र विश्रुत था । दूरदर्शी, महान् नीतिज्ञ वस्तुपाल से परन्तु यह सब कुछ अज्ञात नहीं था। मित्र राजाओं के सम्मिलित रूप से होने वाले आक्रमण को विफल कर के लिये उसने बहुत पहिले से ही सफल प्रयत्न करने प्रारम्भ कर दिये थे । आप स्वयं खम्भात में रहा । मरुधरदेश से आने वाले चार राजाओं की प्रगति रोकने के लिए राणक वीरधवल को प्रबल सैन्य के साथ जाने की अनुमति दी । महामण्डलेश्वर राणक लावण्यप्रसाद एवं तेजपाल को यादवगिरि के नरेश सिंघण को तापती के तट से आगे बढ़ने से रोकने के लिए अति बलशाली सैन्य को साथ लेकर जाने को कहा।
लाटनरेश शंख ने१-२ भरौच (भृगुकच्छ) से महामात्य वस्तुपाल के पास अपना एक दूत भेजा और यह सन्देश कहलाया कि अगर महामात्य खम्भात शंख को दे देगा तो शंख भी महामात्य को ही खम्भात का मुख्याधिकारी बनाये रक्खेगा। ऐसा करने में ही महामात्य का हित है, कारण कि राणक वीरधवल चारों ओर से दुश्मनों से घिर चुका है और उसकी जय होना असम्भव है । ऐसी स्थिति में महामात्य को अपने प्राण संकट में नहीं डालना चाहिए। वैसे महामात्य ज्ञाति से महाजन है और रण में उतरना वैश्यों का कर्म भी नहीं है कि जिससे लज्ज भावे । महामात्य वस्तुपाल ने यह विरोचित उत्तर देकर दूत को विदा किया कि मैं रणक्षेत्र रूपी हाट पर बैठकर शत्रों के मस्तिष्क रूपी द्रव्य को तलवार रूपी तराज में तोलकर स्वर्गगति रूपी मूल्य देकर मोल लेने वाला योद्धा रूपी बणिया हूँ ।३ महामात्य का यह उत्तर सुनकर शंख आगबबूला हो गया और दो सहस्र अश्वारोही एवं दश सहस्र पददल सैनिक लेकर खम्भात के समुद्र तट के सन्निकट आ पहुँचा४ । उधर महामात्य वस्तुपाल भी सर्व प्रकार से तैयार था। धवलकपुर से भी पर्याप्त सैन्य आ चुका था और खम्भात के सैन्य को भी पर्याप्त बढ़ा लिया था ।
की० कौ० सर्ग ४ श्लोक ४२, ४७, ५०, ५५, ५७ १-'अद्य वीरधवलः सबलोऽपि त्वत्प्रभु सुबहुभिर्मरुभूपैः । वेष्ठितः खरममरीचिवान्दै श्यतेऽपि न जयः क नु तस्य ॥२४॥ २-'एकतस्त्रिदशमूर्तिभिरणोराजसूनुभिरुपेत्य बिलग्नः। मालवक्षितिधरं बत मध्ये कृत्य कृत्यविदुषाऽन्यत एव' ॥२॥
'श्रीभटेन बलिनकतभेनोल्लोडिताद्यदिह विग्रहवाइँः। कालकूट मुदगाद्यदुसैन्यं तंन्यवर्त्तयदयं ननु भीमः' ॥३०॥ ३-दूत रे ! वणिगह रणहट्टे विश्रुतोऽसितुलया कल यामि । मौलिभाण्डपटलानि रिपूणा स्वर्गवेतनमथो वितरामि' ॥४४॥
व०वि० सर्ग ५ पृ०२२-२३ ४-अश्वसहस्र २, मनुष्यसहस्र १० दक्षकेन समाययौ । ५-धवलकाद्भरि सैन्यमानाय्याभ्यषेणयत् । प्र० को १२७) पृ०१०८ पु०प्र० सं०१४६) पृ०५६
की कौ०, सु०सं०, न० ना० न०,ह० म०म० श्रादि ग्रन्थों के समकालीन ग्रंथकारों ने अपने ग्रंथों में समान घटना का अथवा छोटी-बड़ी घटनाओं का अलग-अलग या विस्तृत वर्णन नहीं दिया है।