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:: मंत्रीभ्राताओं का गौरवशाली गूर्जर-मंत्री-वंश और मन्त्री भ्राताओं का अमात्य कार्य ::
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दंडनापक तेजपाल और राणक वीरधवल ज्योंहि सौराष्ट्र-विजय करके लौटे कि उन्होंने गोधा के निरंकुश राजा घोघुल को अधीनता स्वीकार करने के लिए दूत भेजकर कहलाया। घोघुल ने प्रत्युत्तर में अपना एक दूर दंडनायक तेजपाल के हाथों वीरधवल की राजसभा में भेजा। उस समय वस्तुपाल भी धवल्लकपुर में ही गोध्रापति घोघुल की पराजय आया हुआ था। घोघुल के दूत ने राजसभा में एक कंचुकी, एक साड़ी और कज्जल की एक डिब्बिया लाकर वीरधवल के समक्ष रक्खी१ । ठक्कुरों, सामन्तों, मन्त्रीगण घोघुल की इस गर्वपूर्ण धृष्टता पर दाँत काटने लगे। घोघुल शूद्रहृदय तो भले ही था, लेकिन था बड़ा बलवान् । उसके पराक्रमों की कहानी गुजरात में घर-घर कही जाती थी। ऐसे भयंकर शत्रु से लोहा लेने के लिये प्रथम कोई तैयार नहीं हुआ। इसका एक कारण यह भी था कि अभी तक सैन्य इतना समृद्ध और योग्य भी नहीं बन पाया था कि जिसके बल पर ऐसे भयंकर शत्रु से युद्ध किया जाय । निदान दंडनायक तेजपाल ने घोघुल को जीवित पकड़ लाने की उठकर प्रतिज्ञा ली और अपने चुने हुये वीरों को लेकर गोध्रा के प्रति चला । घोघुल यद्यपि अत्याचारी था; परन्तु था गौ और ब्राह्मणों का अनन्य भक्त । तेजपाल जैसा अजय योद्धा था, वैसा बड़ा बुद्धिमान् भी था। उसने एक चाल चली। दंडनायक तेजपाल ने गोध्रा की समीपवर्ती भूमि में पहुँच कर अपने कुछ सैनिकों को तो इधर-उधर छिपा दिया और कुछ साथ लेकर गोध्रा नगर के समीप पहुँचा। संध्या का समय था । गौपालकगण गौओं को जंगल में से नगर की ओर ले जा रहे थे । तेजपाल और उसके सैनिकों ने गोध्रा के गौपालकों को घेर लिया और उनकी गौओं को छीन कर हाँक ले चले । घोघुल ने जब यह सुना तो एक दम आगबबूला हो गया और चट घोड़े पर चढ़ कर लूटेरों के पीछे भागा। उधर तेजपाल और उसके सैनिक गौओं को लेकर उस स्थान पर पहुँच गये, जहाँ तेजपाल ने अपने सैनिक छिपा रक्खे थे । घोघुल भी पीछा करता हुआ वहाँ पहुँच गया । घोघुल को तेजपाल के छिपे हुये सैनिकों ने चारों ओर से निकल कर घेर लिया तथा घोघुल के साथ ही जो कुछ सैनिक चढ़कर आये थे, उनको तेजपाल के सैनिकों ने प्रथम मार गिराया। अन्त में घोघुल भी भयंकर रण करता हुआ पकड़ा गया । तेजपाल ने गौओं को तो छोड़ दिया और घोघुल को कैद कर और वे ही स्त्री के कपड़े पहनाकर जो उसने वीरधवल के लिये भेजे थे धवलकपुर की ओर ले चला। धवल्लकपुर पहुँच कर घोघुल ने आत्म-हत्या कर ली। इस प्रकार इस भयंकर शत्रु का भी दंडनायक तेजपाल के हाथों अन्त हुआ।
वि० सं० १२७७ में लाटनरेश शंख, देवगिरिनरेश सिंघण एवं मालवनरेश में शंख की यादवगिरि की कारागार से मुक्ति के समय सन्धि हो चुकी थी कि खम्भात पर जब लाटनरेश शंख आक्रमण करे, तब एक ओर से मालवनरेश मालवा. देवगिरि और लाट और दूसरी ओर से यादवनरेश भी आक्रमण करें और इस प्रकार लाटनरेश की खम्भात के नरेशों का संघ और लाट- को पुनःप्राप्त करने में दोनों मित्रनरेश सहायता करें । तदनुसार उत्तर और पूर्व से मालवनरेश शंख की पूर्ण पराजय नरेश की चतुरंगिनी सैन्य ने एवं दक्षिणपूर्व से यादवनरेश की अजय सैन्य ने सं० १२७७ के अन्तिम महिनों में लाटनरेश को खम्भात के आक्रमण में सहायता देने के लिए प्रस्थान किया । गूर्जरभूमि पर इस आई हुई महाविपत्ति को देखकर तथा इस असमय का लाभ उठाने की दृष्टि से मरुदेश के चार सामन्त राजा, जिनकी
१-प्र० को० व०प्र०१२६) पृ०१०७ २-व० च०प्र०३ प०३४ श्लोक ६८ से १०३६ श्लोक ३५ तक