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खण्ड
:: प्राग्वाट अथवा पौरवालज्ञाति और उसके भेद ::
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श्रावकदल भी एक है, जो आज प्राग्वाट-ज्ञाति कहलाता है। यह श्रावकदल अनेक विभिन्न २ उच्च कुलों का समुदाय है । इसके अधिकांश कुल वैश्य, क्षत्रिय, ब्राह्मण ज्ञातियों में से बने हैं। इसके वंशों एवं कुलों के गोत्रों के नाम अपने २ मूलक्षत्रिय-गोत्र अथवा ब्राह्मण-गोत्रों के नामों पर ही पड़े हुये हैं। जैसे प्राग्वाटज्ञातीय-काश्यपगोत्रीय, चौहानवंशीय । फिर कुलों की अटकें भी बनी हुई हैं, जिनकी उत्पत्ति के कई एक विभिन्न कारण हैं । एक वंश से उत्पन्न कुलों की भी कई भिन्न २ अटके हैं। जैसे 'सोलंकी-वंश' के कई कुलों ने भिन्न २ समय, परिस्थिति, स्थान पर भिन्न २ जैनाचार्यों द्वारा प्रतिबोध प्राप्त करके जैनधर्म स्वीकार किया तो उनमें किसी कुल की अटक प्रसिद्ध मूलपुरुष, जिसने अपने कुल में सर्व प्रथम जैनधर्म सपरिवार स्वीकार किया था के नाम पर पड़ी, जैसे 'बूटासोलंकी' अर्थात् जैनधर्म स्वीकार करने वाला मूलपुरुष सोलंकीवंशीय बूटा था तो 'सोलंकी' गोत्र रहा और 'बूटा' अटक पड़ गई । किसी कुल की, जिस ग्राम में अथवा स्थान पर उसने जैनधर्म स्वीकार किया था उस ग्राम के नाम पर, जैसे 'बड़गामा सोलंकी' अर्थात् इस कुल ने बड़ग्राम में जैनधर्म स्वीकार किया अतः 'बड़गामा' अटक हुई । इसी प्रकार 'निम्बजिया सोलंकी'-इस कुल ने नीमवृक्ष के नीचे प्रतिबोध ग्रहण किया था, अतः यह कुल इस 'निम्बजिया' अटक से प्रसिद्ध हुआ। ऐसे ही अन्य कुलों की अटकों की भी उत्पत्तियाँ हुई। नखों की उत्पत्ति प्रायः धंधों पर पड़ी है, जैसे सुगन्धित द्रव्यों इत्तरादि का धन्धा करने से 'गांधी' नख उत्पन्न हुई ।
आज प्राग्वाटज्ञाति को हम गुजरात, सौराष्ट्र (काठियावाड़), मालवा, मध्यभारत, राजस्थान आदि प्रायः भारत के मध्यवर्ती सर्व ही प्रदेशों, प्रान्तों में वसती हुई देखते हैं । इस ज्ञाति के लोग उक्त भागों में अपने मूलस्थानों प्राग्वाटज्ञाति में शाखाओं से विभिन्न २ समयों में विभिन्न कारणों से, सम-विषम परिस्थितियों के वशीभूत हो की उत्पत्ति.
कर उनमें जाकर वसे हैं और कई एक कुल तो उनमें वहीं उत्पन्न हुये हैं। किसी भी ज्ञाति के कुल अथवा उसके अनेक कुलों का समुदाय जब अपने मूल जन्मस्थान अथवा कई शताब्दियों के निवासस्थान का त्याग करके अन्य किसी नवीन भिन्न प्रांत, प्रदेश में जा कर अपना स्थायी निवास बनाता है, उस दूसरे प्रांत, प्रदेश का नाम भी उन कुलों की ज्ञाति के नाम के साथ में कभी २ जुड़ जाता है ।
प्राग्वाट-श्रावकवर्ग ठेट से समृद्ध और व्यापार-प्रधान रहा है। सम-विषम एवं अति कठिन और भयंकर परिस्थितियों में अतः इस ज्ञाति के कुलों को अपना कई वर्षों का वास त्याग करके अन्यत्र जा कर वसना पड़ा है । मूलस्थान में रही हुई ज्ञाति के कुलों में और अन्य प्रान्त में जाकर स्थायी वास बना लेने वाले उस ज्ञाति के कुलों में कुछ पीढ़ियों तक तो परिचय बना रहता है; परन्तु धीरे २ वह धीमा पड़ने लगता है और अंत में अन्य प्रांत में जाकर वसने वाले कुलों का समुदाय एक अलग शाखा का रूप और नाम धारण कर लेता है और वह प्रसिद्ध बन जाता है।
प्राग्वाटज्ञाति इस प्रकार पड़ी हुई निम्न प्रसिद्ध, अप्रसिद्ध शाखाओं में विभक्त देखी जाती है । जिनमें केवल भोजन-व्यवहार होता है, कन्या-व्यवहार बिलकुल नहीं। कन्या-व्यवहार कब से बंद हुआ, यह कहना अति ही
गोत्र, अटक, नखों के आगे के पृष्ठों में विस्तृत वर्णन मिलेंगे, अतः यहाँ इनकी सूची देना अथवा इन पर यही लिख जाना अनावश्यक है।