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________________ ४२ ] :: प्राग्वाट - इतिहास :: [ द्वितीय हैं इसी प्रकार प्राग्वाटवर्ग भी दोनों मतों में विभक्त हो गया। जैन पौरवाल और वैष्णव पौरवाल दोनों विद्यमान हैं । भगवान् महावीर के निर्वाण पश्चात् और ईसवी शताब्दी आठवीं के मध्यवर्ती समय में अर्थात् हरिभद्रसूरि के युगप्रधानपद तक बने हुये जैन और जैनकुल, जैसा लिखा जा चुका है ई० सन् से पूर्व लगभग तीन सौ वर्षों तक किन २ कुलों से वर्तमान् जैन तो प्रथम संख्या में बढ़ते ही गये; परन्तु पश्चाद्वर्त्ती वर्षों में घटने लगे और बीस कोटि प्राग्वटवर्ग की उत्पत्ति हुई संख्या से ७ या ६ कोटि ही रह गये। जैसा पूर्व लिखा जा चुका है कि श्रावक अथवा जैनकुल वे ही कुल बनाये गये थे, जिनकी उच्चवृत्ति थी और जैनधर्म जैसे कठिन धर्म को कुलमर्यादापद्धति से पाल सकते थे अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यवर्गों में से प्रतिबोध पाये हुये वे जैनकुल बने थे । व यह कहना अति ही कठिन हैं कि वर्तमान् जैन वैश्यसमाज के अन्तर्गत जो कुल विद्यमान हैं, उनमें कौन २ कुल उनकी सन्तानें हैं । प्राचीनतम शिलालेखों, ताम्रपत्रों, प्रशस्तियों और कुलगुरुयों की ख्यातों के प्रामाणिक अंशों से तो वर्तमान् जैनकुलों में विक्रम की पाँचवीं-बट्टी शताब्दी से पूर्व जैन बने हुये कुल कठिनतया ही देखने में आते हैं अर्थात् अधिकांशतः बाद में जैन बने कुलों के वंशज हैं। बाद में जैन बने कुलों' अथवा गोत्रों की ख्यातें प्रायः उपलब्ध हैं । इन ख्यातों में लिखे हुये वर्णनों की सत्यता में इतिहासकार कुछ कम विश्वास करते हैं, परन्तु फिर भी इतना तो नहीं माना जायगा कि सब ही ख्यातों का एक-एक अक्षर ही झूठ है । घटनाओं का वर्णन भले ही बढ़ा-चढ़ाकर किया गया हो, परन्तु व्यक्तियों का नाम निर्देश और समय तथा वर्षों के अंकन सर्वथा कल्पित तो नहीं हैं । उपलब्ध चरित्र, ताम्रपत्र, प्रशस्ति, शिलालेखों से, ख्यातों से और वर्तमान जैनकुलों के गोत्रों के नामों से तथा उनके रहन-सहन, संस्कार, संस्कृति, आकृति, कर्म, धन्धों से स्पष्टतया और पूर्णतया सिद्ध है कि ये कुल वैश्य, क्षत्रिय और ब्राह्मणकुलोत्पन्न हैं । जैसा लिखा जा चुका है कि मूल में जैनसमाज एक वर्णविहीन अथवा ज्ञातिविहीन संस्था है । आज इसमें मी अनेक श्रावकदल हैं, जो ज्ञातियाँ कहलाते हैं, परन्तु इन श्रावकदलों के कुलों ने मूलवर्ण अथवा ज्ञाति का ज्ञाति, गोत्र और अटक परित्याग करके जैनधर्म स्वीकार किया था यह स्मरण रखने की वस्तु हैं । वैष्णव- ज्ञातियों तथा नखों की उत्पत्ति और के अनुसार इन श्रावकदलों ने भी कालान्तर में धीरे २ वैसे ही ज्ञाति के नियमों को उनके कारणों पर विचार स्वीकार करके अपनी २ सचमुच आज ज्ञाति बनाली हैं। ऐसे श्रावकदलों में प्राग्वाट - अनपढ़ दोनों हैं । विद्वान् एक समय में होवे और अनपढ़ दूसरे समय में ऐसा आज तक नहीं सुना गया। दोनों देह -छाया की तरह साथ ही साथ रहते, जीते, वसते हैं। अतः मेरी मम्मति में दोनों शब्दों का व्यवहार भी साथ-साथ ही होता रहा है । प्राग्वाट 'शब्द' का व्यवहार लेखनकला का आधार पाकर प्राचीन प्रामाणिक ग्रंथों, शिलालेखों, ताम्रपत्रों के द्वारा अपने प्रयोग की यथाप्राप्त तिथियों की सूचि दे सकता है । 'पौरवाल' शब्द बोलचाल में प्रयुक्त हुआ है, अतः उसके प्रयोग की तिथियों की सूची तैयार नहीं की जा सकती । कुतर्क को यहां स्थान नहीं है कि आज पौरवाल कहे जाने वाले 'प्राग्वाट' लिखे गये व्यक्तियों से भिन्न ज्ञातीय हैं। 'प्राग्वाट' संस्कृत शब्द है और 'पोरवाल' शब्द बोलचाल का है। दोनों के अन्तर का यही कारण है; बाकी दोनों शब्द एक ही वर्ग अथवा ज्ञाति के परिचायक अथवा नाम हैं और यह निर्विवाद है तथा दोनों का प्रयोग भी साथ-साथ होता आया है—एक का विद्वानों द्वारा और दूसरे का सर्व साधारणजन द्वारा । 'पौरवाल' शब्द राजस्थानी में मारवाड़ी भाषा का शब्द है । इससे यह और सिद्ध है कि पौरवाल ज्ञाति का राजस्थान से घनिष्ट ही नहीं उसकी उत्पत्ति से गहरा सम्बन्ध रहा हुआ है ।
SR No.007259
Book TitlePragvat Itihas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherPragvat Itihas Prakashak Samiti
Publication Year1953
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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