SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 176
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ :: प्राग्वाट अथवा पौरवालशासि और उसके भेद :: १ रावसगोत्रीय, २ अंबाईगोत्रीय, ३ ब्रह्मशतागोत्रीय चौहाण इन तीनों गोत्रों के प्रथम जैनधर्म स्वीकार करने वाले मूलपुरुषों का प्रतिबोध-समय विक्रम की दशवीं शताब्दी के प्रारम्भ के वर्ष बतलाये जाते हैं : ४ जैसलगोत्र राठोड़, ५ कासबगोत्र, ६ नीबगोत्र चौहाण, ७ साकरिया चौहाण, ८ फलवधागोत्र परमार। इन पाँचों गोत्रों के प्रथम जैनधर्म स्वीकार करने वाले मूलपुरुषों का प्रतिबोध-समय विक्रम की बारहवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध के वर्ष बतलाये जाते हैं । प्राग्वाट अथवा पोरवालज्ञाति और उसके भेद प्राग्वाटश्रावकवर्ग आज पौरवालज्ञाति कहलाता है। प्राग्वाटश्रावकवर्ग की उत्पत्ति भगवान महावीर के निर्वाण के पश्चात् लगभग ५७ (५२) वर्ष श्री पार्श्वनाथ-संतानीय श्रीमत् स्वयंप्रभसूरि ने भिन्नमाल और प्राग्वाट अथवा पोरवालवर्ग पद्मावती में की थी। श्रीमालश्रावकवर्ग की भी उत्पत्ति उक्त आचार्य ने उस ही का जैन और वैष्णव पौर- समय में की थी। इन आचार्य के निर्वाण पश्चात् श्रावकवर्ग की उत्पत्ति और वृद्धि का वालों में विभक्त होना कार्य पश्चाद्वर्ती जैनाचार्यों ने बड़े वेग से उठाया और वह बराबर वि० सं० पूर्व १५० वर्ष तक एक-सा उन्नतशील रहा । गुप्तवंश की अवंती में सत्ता-स्थापना से वैदिकमत पुनः जाग्रत हुआ । अब जहाँ अजैन जैन बनाये जा रहे थे वहाँ जैन पुनः अजैन भी बनने लगे । जैन से अजैन बनने का और अजैन से जैन बनने का कार्य वि० सातवीं-आठवीं शताब्दियों में उद्भटविद्वान् कुमारिलभट्ट और शंकराचार्य के वैदिक-उपदेशों पर और उधर, जैनाचार्यों के उपदेशों पर दोनों ही ओर खूब हुआ। रामानुजाचार्य और वल्लभाचार्य के वैष्णवमत के प्रभावक उपदेशों से अनेकों जैनकुल वैष्णव हो गये थे। इसका परिणाम यह हुआ कि वैश्यवर्गों में भी धीरे २ वैदिक और जैनमत दोनों को मानने वाले दो सुदृढ़ पक्ष हो गये । उसी का यह फल है कि आज भी वैष्णव पौरवाल और जैन पोरवाल, वैष्णव खंडेलवाल और जैन खंडेलवाल, वैष्णव अग्रवाल और जैन अग्रवाल विद्यमान ___ अन्य कई एक पौषधशालाओं से भी इस सम्बन्ध में निरन्तर पत्रव्यवहार किये; परन्तु अनेक ने गोत्रों की सूची नहीं दी। श्रतः अधिक प्रकाश डालने में विवशता ही है। सेवाड़ी, घाणेराव और बाली तीनों ही राजस्थान के मरुधरप्रान्त के विभाग गोडवाड़ (गिरिवाड़) के प्रमुख एवं प्राचीन नगर हैं। सिरोही अपने राज्य की राजधानी रही है । ये चारों ही ग्राम, नगर भूतकाल में प्राग्वाटप्रदेश के नाम से विश्रत रहे क्षेत्र में ही वसे हुये हैं। अतः प्राग्वाट-श्रावककुलों का विवरण रखने वाली इन पौषधशालाओं का प्राग्वाट-इतिहास की दृष्टि से महत्त्व बढ़ जाता है। 'प्राग्वाट' शब्द के स्थान में पोरवाल' शब्द का प्रयोग कब से चालू हुआ यह कहना अति ही कठिन है। ठेट से 'प्राग्वाट' लिखने में और 'पौरवाल' बोलचाल में व्यवहृत हुआ है। लेखक पण्डित और विद्वान् होते हैं और बोलचाल करने वाले पण्डित और
SR No.007259
Book TitlePragvat Itihas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherPragvat Itihas Prakashak Samiti
Publication Year1953
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy