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माम्बाद-इतिहास::
[ प्रथम
कठिन है। इतना अवस्य है कि जब अन्य वर्णों एवं वर्गों की पेटाझातियों की अन्तरशाखाओं में परस्पर कन्याव्यवहार बन्द होने लगा होगा। उस समय के आस-पास प्राग्वाटज्ञाति की शाखाओं में भी वह बन्द हुआ समझना चाहिये।
१ सौरठिया-पौरवाल २ कपोला-पोरवाल ३ पद्मावती-पोरवाल ४ गूर्जर-पोरवाल
५ जांगड़ा-पौरवाड़ ६ नेमाड़ी और मलकापुरी-पौरवाल ७ मारवाड़ी-पौरवाल ८ पुरवार
है परवार
सौरठिया और कपोला-पोरवाल
इस ज्ञाति के कौन कुल और कब किस-किस प्रदेश, प्रान्त में जाकर वसे, इतिहास में इसकी कोई निशित तिथि और संवत् उपलब्ध नहीं है । भिन्नमाल गूर्जरदेश का पाटनगर रहा है और यह नगरी तथा प्राग्वाट-प्रदेश गूर्जरभूमि से जुड़ा हुआ है। सम-विषम परिस्थितियों में एक-दूसरे प्रान्तों में जाकर कुल वसते रहे हैं। अवंतीसम्राट् नहपाण की मृत्यु के पश्चात् उसके दामाद ऋषभदत्त ने जब जूनागढ़ को भिन्नमाल के स्थान पर अपनी राजधानी नियुक्त किया था, तब और विक्रम की तृतीय, आठवीं शताब्दी और बारहवीं शताब्दी के (११११) प्रारम्भ के वर्षों में भिन्नमाल और प्राग्वाट-प्रदेश के ऊपर बाहर की ज्ञातियों के भयंकर आक्रमण हुये तब भिन्नमाल, पद्मावती तथा प्राग्वाटदेश के अन्य स्थानों से कुलों के दल के दल अपने जन्मस्थान का परित्याग करके मालवा, सौराष्ट्र, गुजरात में जाकर बसे हैं । ____ऊपर की पंक्तियों से इतना ही श्राशय यहाँ ले सकते हैं कि प्राग्वाट-प्रदेश तथा भिन्नमाल के ऊपर जब जब
आक्रमण हुये तथा राज्यपरिवर्तन हुआ, इन स्थानों से तब-तब अनेक कुल अन्य स्थानों में जा-जा कर बसे हैं । उन वसने वालों में प्राग्वाट-ज्ञातीयकुल भी थे। जो प्राग्वाट-ज्ञातीयकुल सौराष्ट्र एवं कुंडल-महास्थान में जाकर स्थायी रूप से वस गये थे, वे आगे जाकर सौराष्ट्रीय अथवा सौरठिया-पोरवाल और कुण्डलिया तथा कपोला-पोरवाल कहलाये। मेरे अनुमान से सौराष्ट्र और कुण्डल में जो अभी सौरठिया, कपोला-पौरवालों के कुल बसे हुये हैं, वे विक्रम की आठवीं शताब्दी के पश्चात् जाकर वहाँ बसे हैं, जब कि अणहिलपुरपत्तन की वनराज चावड़ा ने नींव डाल कर अपने महाराज्य की स्थापना की थी और निन्नक को जो पौरवालज्ञातीय था अपना महामात्य बनाया खलीफा हसन के समय सिंध के हाकिम जुनेदे ने भिन्नमाल पर पाकमण किया था।
-सुधा' वर्ष २ खण्ड १ सं० १ श्रावण पृ०६ 'गालवा स्थापिता ह्यते गालवाः सन्तुनामतः। तखापि कपोलाख्याः कपोलाद्भुतकुण्डलाः॥ प्राग्वाटा: सुरभिख्याता गुरुदेवार्चने रताः । येषां प्राग्वाटा भवेद्वाडो (१) महीपस्थापनात्मकः ।। ते प्राग्वाटा अभिज्ञेयाः सौराष्ट्रा राष्ट्रवर्द्धनाः ।....."
-स्कंधपुराण