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________________ ३६ ] ...:: प्राग्वाट-इतिहास.. [प्रथम ... भाण राजा. दृढ़ जैन-धर्मी था। उसने नागेन्द्रगच्छीय श्री सोमप्रभाचार्य के सदुपदेश से श्रीशजय, गिरनारतीर्थों की श्री शंखेश्वरगच्छीय कुलगुरु-प्राचार्य उदयप्रभसूरि की अधिनायकता में बड़ी ही सज-धज एवं विशाल संघ के साथ में यात्रा की थी और उसमें अट्ठारह कोटि स्वर्ण-मुद्राओं का व्यय किया था। जब संघपतिपद का तिलक करने का मुहूर्त आया, उस समय यह प्रश्न उठा कि उक्त दोनों प्राचार्यों में से राजा भाण के भाल पर संघपति का तिलक कौन करे । कारण यह था कि उदयप्रभसूरि तो राजा के कुलगुरु होते थे और सोमप्रभसूरि राजा भाण के संसारपक्ष से काका होते थे । अन्त में सर्वसम्मति से उदयप्रभसूरि ने संघपति का तिलक किया। माना जाता है कि तब से ही कुलगुरु होने की प्रथा दृढ़ हो गई और कुलगुरु आचार्य अपने २ छोटे बड़े सब ही श्रावककुलों की सूची रखने लगे और उनका विवरण लिखने लगे। ____कुलगुरुओं की इस प्रकार हुई दृढ़ स्थापना से यह हुआ कि तत्पश्चात् श्रावक कुलों के वर्णन अधिकांशतः लिखे जाने लगे । आज जो कुछ और जैसा भी साधारण श्रावककुलों का इतिहास मिलता है, वह इन्हीं कुलगुरुत्रों की बहियों में है, जिनको 'ख्यात' कहते हैं । श्रावककुलों के वर्णन लिखने की प्रथा का प्रभाव एक दूसरा यह भी कुलगुरुओं की स्थापना का पड़ा कि कुलगुरुओं का वर्णन भी उनसे सम्बन्धित श्रावकों के वर्णन के साथ ही साथ श्रावक के इतिहास पर यथाप्रसंग लिखा जाना अनिवार्य हुआ और धीरे २ कुलगुरुओं की भी पट्टावलियाँ प्रभाव लिखी जाने लगीं । मेरे अनुमान से तीसरा प्रभाव यह पड़ा कि इस के पश्चात् ही प्रतिमाओं पर लेख जो पहिले लोटे २ दिये जाते थे, जिनमें केवल संवत. प्रतिमा का नाम ही संकेतमा अब से बड़े लेख दिये जाने लगे और उनमें प्रतिष्ठाकर्ता आचार्य का नाम, प्राचार्य का गच्छ, प्राचार्य की गुरुपरंपरा, श्रावक का नाम, ज्ञाति. गोत्र. उपाधि. जन्मस्थान. श्रावक के पूर्वजों का नाम, श्रावक का परिवार और किसके श्रेयार्थ, कब, कहाँ और किसके उपदेश पर वह प्रतिमा अथवा मंदिर प्रतिष्ठित हुआ के धीरे २ उल्लेख बढ़ाये गये। .. श्री गौरीशंकर हीराचन्द्र ओझा ने सिरोहीराज्य का इतिहास लिखते हुए राजस्थान पर मौर्यवंशी सम्राटों से लेकर वर्तमान् नरेश के कुल तक किस २ वंश के सम्राटों, राजाओं का राज्य रहा के विषय में सविस्तार लिखा है। उन्होंने भिन्नमाल को चीनी यात्री होनसांग के कथन के अनुसार, जो हर्षवर्द्धन के मरण के ठीक पश्चात् ही भारत में आया था स्पष्ट शब्दों में गूर्जरराज्य की राजधानी होना स्वीकार किया है । वे पृ० ११६ पर लिखते हैं कि वि० सं०६८५ ई० सन् ६२८ में ब्रह्मगुप्त ने 'स्फुट ब्रह्म-सिद्धान्त' लिखा, उस समय चापवंशी (चापोत्कट) व्याघ्रमुख नाम का राजा भिन्नमाल (मारवाड़) में राज्य करता था । व्याघ्रमुख के पीछे का भिन्नमाल के चावड़ों का कुछ भी वृतान्त नहीं मिलता। अचलगच्छीय पट्टावली को जब देखते हैं तो व्याघ्रमुख नाम का भिन्नमाल में कोई राजा ही नहीं हुका है। यह हो सकता है कि इस नाम का मारवाड़ में कहीं कोई उन दिनों में राजा रहा होगा। आज भी कुलगुरुओं की राजस्थान, मालवा में अनेक पौपधशालयें हैं, जिनको पौशाल कहते हैं। इन पौषधशालाओं की ऐसी व्यवस्था है कि एक गोत्र के एक ही गच्छ के कुलगुरु होते हैं। एक ही गच्छ के कुलगुरु अनेक गोत्रों के श्रावकों के कुलगुरु हो सकते हैं। जिस पौषधशाला के श्रावककुल दूर २ बसते हैं अथवा बहु संख्या में हैं, उस पौषधशाला की प्रमुख २ स्थानों में शाखायें भी स्थापित हैं, जो प्रमुख शाखा से सम्बन्धित हैं। इन कुलगुरुत्रों के पास में सहस्रों कुलों और गोत्रों की प्राचीन ख्याते हैं। वर्णन की दृष्टि से जिनमें आठवी, नौवीं शताब्दी के और इससे भी पूर्व के वर्णन भी उपलब्ध हो सकते हैं। भारत में जो चमत्कार दिखाने की भावनायें हर एक में बहुत प्राचीनकाल से घर जमाई हुई चली आ रही हैं, उनके कारण श्रावकों की ख्यातों में घटनाओं को कई एक शिथिलाचारी कुलगुरुओं ने अपने श्रावकों को प्रसन्न रखने की भावना से अवश्य बढा चढ़ा कर सम्भवतः लिखा भी होगा। यही कारण है कि आज इन ख्यातों को जो श्रावककुल का सच्चा इतिहास कहलाने का अधिकार रख सकती हैं, शंका की दृष्टि से देखी जाती हैं और .
SR No.007259
Book TitlePragvat Itihas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherPragvat Itihas Prakashak Samiti
Publication Year1953
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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