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खण्ड ]
:: वर्तमान जैनकुखों की उत्पत्ति ::
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भाग राजा के समय में भिन्नमाल अधिक समृद्ध और सम्पन्न नगर था। नगर में अनेक कोटीश और लक्षाधिपति श्रेष्ठिगण रहते थे । इनमें अधिकांश जैन और जैनधर्म के श्रद्धालु थे । भाग राजा स्वयं जैन था और उसके कुलगुरु प्रखर पण्डित तेजस्वी आचार्य उदयप्रभसूरि का पहिले से ही भिन्नमाल के नगरजनों में पर्याप्त प्रभाव था । तात्पर्य यह है कि भिन्नमालनगर में भाग राजा के राज्यसमय में जैनधर्म और जैनसमाज का प्रभुत्व था । अनुक्रम से विहार करते हुये श्री उदयप्रभसूरि वि० सं० ७६५ में भिन्नमालनगर में पधारे और अति प्रतिष्ठित एवं कोटिपति बासठ श्रीमालब्राह्मणकुलों को तथा तत्पश्चात् आठ प्राग्वाट - ब्राह्मण कुलों को फाल्गुण शुक्ला द्वितीया को प्रतिबोध देकर जैन श्रावक बनाये । श्रीमाल - ब्राह्मणकुलों को जैन बनाकर श्रीमाल श्रावकवर्ग में सम्मिलित किया और आठ प्राग्वाट ब्राह्मण कुलों को जैन बनाकर प्राग्वाट - श्रावकवर्ग में सम्मिलित किया, जिनके मूल पुरुषों के नाम और गोत्र इस प्रकार हैं:
समधर और उसके पुत्र नाना और अन्य सात प्रतिष्ठित ब्राह्मणकुलों का प्राग्वाट
श्रावक बनना.
१ काश्यपगोत्रीय श्रेष्ठ नरसिंह
माधव
२ पुष्पायन ३ आग्नेय
४ वच्छस
५ पारायण गोत्रीय श्रेष्ठ नाना
६ कारि
नागड़
७ वैश्यक
राममल्ल
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८ मार
19
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उक्त आठ कुलो' के जैन बनने और प्राग्वाट - श्रावकवर्ग में सम्मिलित होने की घटना को अंचलगच्छीय पट्टावली में इस प्रकार लिखा है:
17
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" जूना
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माणिक
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27
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भिन्नमाल में श्रीमालब्राह्मलज्ञातीय पारायण (पापच) मोत्रीय पाँच कोटि स्वर्ण मुद्राओं का स्वामी समधर श्रेष्ठि रहता था । उसके नाना नाम का पुत्र था । नाना का पुत्र कुरजी था । कुरजी पर सिकोतरीदेवी का प्रकोप था, अतः वह सदा बीमार रहता था। वह धीरे धीरे २ इतना कृश और रुग्ण हो गया था कि उसकी मृत्यु संनिकट-सी आ गई थी। ठीक इन्हीं दिनों में श्री शंखेश्वरगच्छीय आचार्य उदयप्रभसूरि का भिन्नमाल में पदार्पण हुआ । नाना श्रेष्ठ उक्त आचार्य की प्रसिद्धि को श्रवण करके उनके पास में गया और वंदना करके उसने अपने दुःख को
इनमें लिखे वर्णनों में बहुत कम लोग विश्वास करते हैं । फिर भी इतना तो अवश्य है कि उन ख्यातों में जो भी लिखा है, वह न्यूनाधिक घटना रूप से घटा है ।
भाणराजा का वर्णन, उसकी संघयात्रा, कुलगुरुओं की स्थापना और उसके कारण तथा श्रावककुल के इतिहास के लिखने की प्रथा का प्रारम्भ होना आदि अलग पट्टावली से उपलब्ध है । अञ्चलगच्छ-पट्टावली को विधिपक्षगच्छीय 'महोटी पट्टावली' भी कहा जाता है। यह छः भागों में पूर्ण हुई हैं ।
१ - उक्त पट्टावली का लिखना श्री स्कंदिलाचार्य के शिष्य श्री हिमवंताचार्य ने प्रारम्भ किया था। उन्होंने वि० सं० २०२ तक अपने उक्त गुरु के निर्वाण तक का वर्णन लिखा है। यह प्रथम भाग कहलाता है।
२ - वि० सं० २०२ से १४३८ तक का वर्णन द्वितीय भाग कहलाता है, जिसको संस्कृत में मेरुतुंगसूरि ने लिखा है । ये आचार्य बड़े विद्वान् थे । इन्होंने 'बालबोध-व्याकरण, शतकभाष्य, भावकर्म प्रक्रिया, जैनमेघदूत काव्य, नमुत्थों की टीका, सुश्राद्धकथा, उपदेशमाला की टीकादि अनेक प्रसिद्ध ग्रंथ लिखे हैं ।
३ - वि० सं० १४३८ से वि० सं० १६१७ में हुए धर्ममूर्त्तिसूरि ने गुणनिधानसूरि तक वर्णन लिखा है । यह तृतीय भाग है।