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:: वर्तमान जैनकुलों की उत्पत्ति :
प्रारम्भ हो गया था और फलतः बामण-धर्म का प्रचार भी पुनः शिथिल पड़ने लग गया था। इन्होंने मालवा और मेवाड़ में अनेक उच्च एवं सुसंस्कृत अजैनकुलों को श्रावकधर्म की दीक्षा देकर जैन बनाये थे और उनको प्राग्वाटवर्ग में सम्मिलित किया था।
श्री शंखेश्वरमच्छीय प्राचार्य उदयप्रभसूरि द्वारा विक्रम संवत् ७६५ में श्री भिन्नमालपुर में
आठ ब्राह्मण-कुलों को जैन बनाकर प्राग्वाटश्रावकवर्ग में उनका संमिलित करना।
मिनमाल के राज्यसिंहासन पर वि० सं० ७१६ में जयंत नामक राजा विराजमान हुआ था। जयंत के पश्चात् उसका छोटा भाई जयवंत वि० सं० ७४६ में राजा बना। उसने श्री शंखेश्वरगच्छीय सर्वदेवसरि के सदुपदेश से भिन्नमाल में जैन राजा भाण जैन-धर्म अंगीकृत किया था। उसके पश्चात् उसका पौत्र भाणजी, जो वना का पुत्र था द्वारा संघयात्रा और कुल- वि० सं० ७६४ में राजा बना। भाण बड़ा प्रतापी राजा हुआ है। उसने गंगा तक गुरुओं की स्थापना अपने राज्य का विस्तार किया था।
'समराईच्चकहानीकर्ता-हरिभद्र जैन परम्परा प्रमाणे विक्रम संवत् ५८५ मा अथवा वीर संवत् १०५५ मा अटले ई० स० ५२६ मा काल पाम्या ! भावी जैन मान्यता ई० स० ना १३ मा सैकानी शरुपात थी नजरे पड़े छ । छता या तारीख खोटी ठराववामा प्रावी हती, कारण के ई० स०६५० मा थयेला धर्मकीर्तिना तात्विक विचारो थी हरिभद्र परिचित हता।' उद्योतन नो 'कुवलयमाला' नाम नो प्राकृतग्रंथ शक संवत् ७०० ना छेल्ले दिवसे भेटले ई० स० ७७६ ना मार्च नी २१ मी तारीखे पुरो पाड़वामा श्राव्यो हतो । 'मा थनी प्रशस्ति मा उद्योतन हरिभद्र ने पोताना दर्शनशास्त्र ना गुरु तरीके जणावे छ।' श्रा उपर थी आपणे श्रे समय, अगर ई०सं०७५० के ते पछीनो समय श्रेमना साक्षरजीवन तरीके लई शकिये-मु०जि०वि०
-जै० सा०स० ख०३ अङ्क ३ पृ०२८३-८४. भीलवाड़ा नगर से दक्षिण में लगभग ५ मील के अन्तर पर अभी भी पुर नामक छोटा कस्बा है। गौरीशंकर हीराचन्द्र ओझा आदि कुछ विद्वान् इस ही पुर से प्राग्वाटज्ञाति की उत्पत्ति के होने का अनुमान करते हैं। मेरे अनुमान से अगर 'पुर' से अजैनों को जैन बना कर प्राग्वाटवर्ग में सम्मिलित किया भी गया हो तो सम्भव है कि यह कार्य श्री हरिभद्रसरि द्वारा ही सम्पन्न हुआ होगा, क्योंकि वे 'पुर से थोड़ी दूरी पर स्थित चित्तौड़गढ़ के निवासी थे और मालवा, राजस्थान और विशेषतः मेवाड़ में उनका अधिक विहार हुआ था।
हरिभद्रसरि ने अजैनों को ई० सन् की आठवीं शताब्दी में जैन बना कर उनको प्राग्वाट-श्रावकवर्ग में सम्मिलित किया, इससे एक आशय यह निकलता है कि मालवा और मेवाड़ में अवश्यमेव श्रीमालवर्ग, श्रोसवालवर्ग की अपेक्षा प्राग्वाटवर्ग का अधिक प्रभाव था । इससे यह और सिद्ध हो जाता है कि अर्बुदाचल से लेकर गोडवाड़ (गिरिवाड़) तक का प्रदेश पुर-जिले से मिला हुआ था और वह प्राग्वाटप्रदेश ही कहा जाता था । गुप्तवंश के राज्य में समूचा राजस्थान सम्मिलित था। बहुत सम्भव है पुर-जिला प्राग्वाट प्रदेश में उस समय में रहा हो । मेदपाट (मेवाड़) को प्राग्वाट प्रदेश भी कहा जाता था, ऐसा कई स्थलों पर लिखा मिलता है।
श्री गौरीशंकर हीराचन्द्र श्रोझा ने नागरी-प्रचारिणी पत्रिका के द्वितीय भाग में संवत् १९७८ में एक लेख लिखा है और करनवेल के एक शिलालेख के आधार पर मेदपाट प्रदेश का दूसरा नाम प्राग्वाटप्रदेश होना भी माना है। उक्त लेख के एक श्लोक में मेवाड़ के गुहिलवंशी राजा हंसपाल, वैरीसिंह के नाम आते हैं और उनको प्राग्वाटप्रदेश का राजा होना लिखा है।
'प्राग्वाटे वनिपाल-भालतिलकः श्रीहंसपालो भवत्तस्माद् । भूभृत्सुदसुत सत्यसमितिः श्री वैरिसिंहाभिधाः॥ श्राप रोहिड़ा से ता० १०-१-१६४७ के कार्ड में लिखते हैं, 'प्राग्वाट' शब्द की उत्पत्ति मेवाड़ के पुर शब्द से है । 'पुर' से "पुरवाड़' और 'पौरवाड़' शब्दों की उत्पत्ति हुई । 'पुर' शब्द मेवाड़ के पुर-जिले का सूचक है और मेवाड़ के लिये 'प्राग्वाट' शब्द भी लिखा मिलता है।"