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________________ ४] :: प्राबाद-इतिहास : [ प्रथम वर्ग भी पुनः विषम परिस्थितियों के वश जैनधर्म छोड़कर अन्य धर्मी बन गये हों। ऐसा ही हुआ था, तब ही तो पुनः २ अजैन कुलों को जैन बनाने का प्रयास करना पड़ा और विक्रम की आठवीं शताब्दी में वह द्रुतवेग से राजस्थान में, मालवा में हुआ। उस ही प्रयास का सुफल वर्तमान् जैनसमाज कहा जा सकता है । अन्यथा अगर ऐसा नहीं होता तो जहाँ एक बार जैन स्त्री-पुरुषों की संख्या बीस कोटि बन जाय, वहाँ फिर घटने का और वह मी इस द्रुतगति से — फिर अन्य कारण क्या हो सकता है । अतः अमर पाँचवीं शताब्दी से अथवा सातवीं, आठवीं शताब्दी से पूर्व जैन बने हुये कुलों की आज विद्यमानता नहीं नजर आती है, अथवा अगर कुछ है भी तो भी वह विश्वसनीय रूप से नहीं मानी जाती है तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है; जब कि वर्तमान में जो जैनसमाज है, उसके अधिकांश कुलों' की जैनधर्म स्वीकार करने की तिथि विक्रम संवत् की आठवीं अथवा इससे पूर्व की नहीं मिलती है । आठवीं शताब्दी में नये जैनकुलों की मालवा और राजस्थान में जो उत्पत्तियाँ की गई — यह नवीन प्रयास हुआ । वर्तमान् जैनकुलों की उत्पत्ति का इतिहास यहीं से प्रारम्भ हुआ समझना चाहिए उक्त पंक्तियों का यही निष्कर्ष है कि वर्तमान् जैनसमाज की सर्व ज्ञातियाँ विक्रम संवत् की आठवीं नौवीं शताब्दी में और उनके भी पश्चात् उत्पन्न हुई हैं और उनका उत्पत्तिस्थान मालवा और राजस्थान ही अधिकतः है । यह बात वैष्णवमतावलंबी अन्य वैश्यज्ञातियों की उत्पत्ति के विषय में भी मानी जा सकती है कि उनका धर्म स्वीकार करके वैष्णवधर्मी बनकर जैनेतर वैश्य बनना विक्रम की आठवीं शताब्दी में उत्पन्न शंकराचार्य के जैन और बौद्धमत का प्रबल विरोध करने का तथा बाद में रामानुजाचार्य और वल्लभाचार्य के उपदेशों का परियाम है अर्थात् वैष्णव वैश्यज्ञातियाँ भी विक्रम की आठवीं नौवीं शताब्दी में और पश्चात् ही बनी हैं। ई० सन् की आठवीं शताब्दी में श्री हरिभद्रसूरि द्वारा अनेक जैन कुलों को जैन बनाकर प्राग्वा श्रावकवर्ग में सम्मिलित करना । 1 ई० सन् की आठवीं शताब्दी में हरिभद्रसूरि एक महान् पंडित एवं तेजस्वी जैनाचार्य हो गये हैं । ये गृहस्थावस्था में ब्राह्मणकुलीन थे और चित्रकूट (चित्तौड़गढ़) के रहने वाले थे । इन्होंने जैन साधुपन की दीक्षा लेकर जैनागमों का गम्भीर अध्ययन किया था । अपने समय के महान् पण्डित थे । इन्होंने १४४४ ग्रन्थ लिखे थे—ऐसा अनेक ग्रन्थों' में लिखा मिलता है इनके समय में हिन्दूधर्म के मानने वाले सम्राटों का प्रभाव घटना । * कमलकुमार शास्त्री का 'परवारों की उत्पत्ति का विचित्र इतिहास' शीर्षक से 'जैनमित्र' वर्ष ४१, अंक ४, पृष्ठ ६३ पर सचमुच विचित्र ही लेख छपा हुआ था। जिस पर परवारसमाज में भारी क्षोभ उत्पन्न हो गया था और उक्त लेख का अनेक परवार -पंडितों ने अनेक लेख लिखकर घोर खण्डन और विरोध किया था। श्री नाथूरामजी 'प्रेमी' प्रसिद्ध साहित्यमहारथी का अन्त में २२ पृष्ठों का लम्बा और भ्रमनिवारक लेख 'परवारज्ञाति के इतिहास पर कुछ प्रकाश' शीर्षक से परवारबन्धु: वर्ष ३-४ अप्रैल मई सन् १६४० पृ० २५ पर प्रकाशित हुआ । उक्त लेख में पृ० ३१ पर 'वैश्यों की करीब २ सभी ज्ञातियाँ राजस्थान से ही निकली हैं', पृ० ३८ पर 'वर्तमान् ज्ञातियाँ नौवी - दसवीं शताब्दी में पैदा हुई होना चाहिये' यादि लिखा है ।
SR No.007259
Book TitlePragvat Itihas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherPragvat Itihas Prakashak Samiti
Publication Year1953
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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