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खण्ड ]
:: वर्तमान जैनकुलों की उत्पत्ति ::
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रहे हैं। तभी राजस्थान और मालवा में वर्तमान जैनकुलों के गोत्र, नख और अटकों की विद्यमानता है और यहाँ से छोड़कर जाने वाले कुलों के लोगों के वंशज धीरे २ अपने गोत्र, नख और अटक भूलते गये और अब उनका 1. गोत्र, नख अथवा अटक जैसा कुछ भी नहीं रह गया है। वे सीधे ओसवाल, प्राग्वाट और श्रीमाल हैं। गुजरात में जितने जैन कुल हैं, उनके गोत्रों का कोई पता नहीं लग सकता है और नहीं उनको ज्ञात है कि उनके पूर्वज किस गोत्र के थे।
उक्त अवलोकन पर से तो यह कहना पड़ता है कि अधिकांशतः वर्तमान् जैनकुलों की उत्पत्ति वि० संवत् की आठवीं शताब्दी में और तत्पश्चात् ही हुई है । १ इससे यह मत स्थिर नहीं हो जाता कि जैनकुलों की स्थापना वि० संवत् की आठवीं शताब्दी से पूर्व हुई ही नहीं थी । भगवान् महावीर के निर्वाण के ५७ (५२) वर्ष पश्चात् ही स्वयंप्रभरि ने श्रीमाल -श्रावककुलों की, प्राग्वाट - श्रावककुलों की और रत्नप्रभसूरि ने ७० वर्ष पश्चात् ही ओसवालश्रावकवर्ग के कुलों की उत्पत्तियाँ कीं और अन्य कई श्राचार्यों ने भिन्न २ समयों में अजैनकुलों को जैन बनाकर उक्त ..जैनकुलों में सम्मिलित किये अथवा अग्रवाल, खण्डेलवाल, बघेरवाल, चित्रवाल जैसे फिर स्वतन्त्र जैनवर्गों की उत्पत्तियाँ कीं ।
वर्तमान् जैनसमाज की स्थापना कब से मानी जानी चाहिये इस पर नीचे लिखी पंक्तियों पर विचार करके उसका निर्णय करना ठीक रहेगा ।
• प्रथम प्रयास – भगवान् महावीर के संघ में जो श्रावक सम्मिलित हुये थे, उन्होंने अधिकांशतया व्यक्तिगत रूप से जैनधर्म स्वीकार किया था। उनके कुलों और उनकी भविष्य में आने वाली सन्तानों के लिये जैनधर्म का पालन कुलधर्म के रूप में अनिवार्य नहीं बना था । यह प्रथम प्रयास था, जिसमें श्रावकदल की उत्पत्ति हुई ।
दूसरा प्रयास - स्वयंप्रभसूरि, रत्नप्रभसूरि और अन्य जैन आचार्यों ने अजैनकुलों को जैनकुल बनाने का दूसरा प्रयास किया। जैनसमाज की स्थापना का शुभ मुहूर्त सच्चे अर्थ में तब से हुआ । उक्त प्रथम प्रयास इसकी भूमिका कही जा सकती है । GUP A * *..
तीसरा प्रयास – सम्राट् संप्रति और खारवेल के समय में जैनधर्म के मानने वालों की संख्या बढ़ाकर बीस कोटि२ पर्यन्त पहुँचाने का तीसरा प्रयास हुआ ।
शंकराचार्य के समकालीन श्री बप्पमट्टिसूरि के समय में अथवा विक्रम की नौवीं शताब्दी में जैनों की संख्या सात और छ कोटि के बीच में रह गई थी। श्रीमद् हेमचन्द्राचार्य के समय में अर्थात् तेरहवीं शताब्दी में जैन- गणना लगभग पाँच कोटि थी । आज घटते घटते ग्यारह और बारह लाख के लगभग रह गई है ।
उक्त अंकनों' से यह सिद्ध है कि जैन बने और जब बढ़े, संख्या बढ़ी ; जब जैन अजैन बनने लगे या बने, संख्या घटी। तब यह भी बहुत सम्भव है कि स्वयंप्रभसूरि आदि अन्य आचार्यों द्वारा जैन बनाये गये कुल और
१- मुनि श्री जिनविजयजी और अगरचन्द्रजी नाहटा आदि प्रसिद्ध इतिहास - वेत्ता भी वर्तमान् जैनसमाज के अन्तर्गत जैनकुलों की उत्पत्ति विक्रम की आठवीं शताब्दी से पूर्व की होना स्वीकार नहीं करते हैं ।
२ - जैनकुलों में प्रतिष्ठित हुए स्त्री-पुरुषों की और चारों वर्णों के जैनधर्म मानने वाले स्त्री-पुरुषों की मिलाकर बीस कोटि संख्या थी ऐसा समझना अधिक संगत है ।