SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 149
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४) प्राग्वाट-इतिहास::.. [प्रथम जैनाचार्यों ने श्रावकों के लिये केवल वाणिज्य करना ही कम पापवाला कार्य बतलाया है और वह भी केवल शुष्क पदार्थ, वस्तुओं का । वर्णव्यवस्था के अनुसार वैश्यवर्ग के व्यक्तियों का कृषि करना, गौपालन करना और वाणिज्य करना कर्तव्य निश्चित किया था, वहाँ जैनसिद्धान्तों के अनुसार जैनवैश्य जनवश्य और उनका काय (श्रावक) का प्रधानतः वाणिज्य करना ही कर्तव्य निश्चित किया गया है, क्योंकि जैनधर्म अधिक पापवाले कार्य का और परिग्रह का खण्डन करता है और ऐसे प्रत्येक कार्य से बचने का निषेध करता है जो अधिक पाप और परिग्रह बढ़ाता है। जैनधर्म में पाप और परिग्रह को ही दुःख का मूल कारण माना है। यही कषायादि दुर्गुणों की उत्पत्ति के कारण हैं और यहीं मनुष्य की श्रेष्ठता, गुणवती बुद्धि और प्रतिभा दब जाती है। भिन्नमाल और पद्मावती में आज से २४७८-७६ वर्ष पूर्व अर्थात् वीरनिर्वाण से ५७ वर्ष पश्चात् जैन बने हुये श्रावकों से ही जैन श्रेष्ठिज्ञातियों का इतिहास प्रारम्भ होता है । क्यों कि यहीं से श्रावकों का शुष्क वस्तुओं एवं पदार्थों का व्यापार करना प्रमुखतः प्रारम्भ होता है, जो उनमें और वेदमतानुयायी वैश्य में अन्तर कर देता है । इस प्रकार अब से पश्चात् जो भी जैनश्रावक बने, उनका वैदिक वैश्यवर्ग से अलग ही जैनश्रावक ( वैश्य ) वर्ग बनता गया । भगवान् महावीर ने चतुर्विधसंघ की स्थापना करके चारों वर्षों के सद्गृहस्थ स्त्री और पुरुषों को श्राविका और श्रावक बनाये थे । ये श्रावक श्राविकायें अपने तक ही अर्थात् व्यक्तिगत सदस्यता तक ही सीमित थे। इनके वंशज उनकी प्रतिज्ञाओं और व्रतों में नहीं बंधे हुये थे । परन्तु स्वयंप्रभसूरि ने प्रमुखतः ब्राह्मण, क्षत्रियवर्णो के उत्तम संस्कारी कुलों को कुलगतपरम्परा के आधार पर जैन बनाया अर्थात जैनधर्म को उनका कुलधर्म बन तथा उनका भिन्न २ नाम से जैनवर्ग स्थापित किया और जैन कुलों का व्यापार, धंधा जैनसिद्धान्तों के अनुसार बत किया, जिससे जैनधर्म का पालन उनके कुलों में उनके पीछे आनेवाली संतानें परम्परा की दृष्टि से करती रहें और विचलित नहीं होवें। आगे जा कर एक स्थान के रहने वाले, एक साथ जैनधर्म स्वीकार करने वाले, पूर्व से एक कुल अथवा परंपरावाले कुलों का एक वर्ग ही बन गया और प्रांत, नगर अथवा प्रमुख पुरुष के नामों के पीछे उस वर्ग का अमुक नाम पड़ गया। उस वर्ग में पीछे से किसी समय और अमुक वर्षों के पश्चात् अगर कोई भी कुल अथवा समुदाय सम्मिलित हुआ, वह भी उसी नाम से प्रसिद्ध हुआ । भारत में जैसे अयोध्या, द्वारिका पौराणिककाल में अति प्रसिद्ध नगरिया रही हैं । ऐतिहासिककाल में अर्थात् विक्रम संवत् से पूर्व पांचवीं, छठी शताब्दी के पश्चात् राजगृही, धारा, अवंती, अथवा उज्जैन तांबावती, पद्मावती आदि श्रति समृद्ध और गौरवशालिनी नगरिया रही हैं। जिनको लेकर अनेक मनोरंजक एवं हितोपदेशक सच्ची, झूठी कहानिया-आज भी कही जाती हैं। यह तो निश्चित है किं पद्मावती नामक नगरी अवश्य रही है। मेरे अनुमान से तो वह अभिविश्रत प्राग्वाट-प्रदेश की पाटनगरी थी और अदाचल के मैदान में उससे थोड़ी दूरी पर अथवा उसकी ही तलहटी में बसी हुई थी, जो भिन्नमाल से कोई सौ-पचहत्तर मील के अन्तर पर ही ही होगी। यह और वे सब अनुमान ही अनुमान है। पद्मावती नगरी कहाँ थी?-यह शोध एक गंभीर विषय है।
SR No.007259
Book TitlePragvat Itihas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherPragvat Itihas Prakashak Samiti
Publication Year1953
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy