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खण्ड] :: प्राग्वाटश्रावकवर्ग की उत्पत्ति ::
[ १३ मेरे अनुमान से उक्त भाव का यह तात्पर्य निकाला जा सकता है कि आचार्य स्वयंप्रभसूरि के द्वारा प्रतिबोध पाये हुये जनसमूह में से श्रीमालपुर के समृद्ध पूर्ववाट में बसने वाले श्रावकों का समूह प्राग्वाट-पद से अलंकृत्त अथवा सुशोभित किसी श्रावक की अधिनायकता में संगठित हुआ और वे सर्व प्राग्वाट-श्रावक कहलाये। आगे भी श्रीमालप्रदेश और इसके समीपवर्ती अर्बुदाचल के पूर्ववाट में जिसने, जिन्होंने जहाँ २ जैनधर्म स्वीकार करके उक्त पुरुष के नेतृत्व को स्वीकृत किया अथवा उसकी परम्परा में सम्मिलित हुये वे भी प्राग्वाट कहलाये । ___विहार करते हुये सुरिजी पद्मावतीनगरी में राजा की राजसभा में भारी यज्ञ का आयोजन श्रवण करके अपनी मण्डली सहित पहुंचे और वहाँ पचतालीश हजार अजैन क्षत्रिय एवं ब्राह्मण कुलों को प्रतिबोध देकर जैनपद्मावती में जैन बनाना
श्रावक बनाये और यज्ञ के आयोजन को बन्ध करवाया । पद्मावती के राजा ने भी "" जैनधर्म अंगीकृत किया था। . प्राबाट-श्रावकवर्ग की उत्पत्ति का चक्रवर्ती पुरुखा और पंजाबपति पौरुष से कोई सम्बन्ध नहीं है। चक्रवत्ती पुरुखा महाभारत के कुरुक्षेत्र में हुये रण से भी पूर्व हो गया है और पंजाबपति पौरुष स्वयंप्रभसूरि के निर्वाण से लगभग १०० वर्ष पश्चात् हुआ है। श्रीमाल-महात्म्य (पुराण) में श्रीमालपुर में १०००० दस हजार योद्धाओं की पूर्व दिशा से आकर उसके पूर्व भाग में बसने की और फिर उनके प्राग्वाट-श्रावक कहलाने की बात जो लिखी गई है भ्रमात्मक प्रतीत होती है। साधनों के अभाव में अधिक कुछ भी लिखा नहीं जा सकता। . १-श्री उपकेशगच्छ-प्रबन्ध (हस्तलिखित)।
(कर्ता-आचार्य श्रीककसरि विक्रम संवत् १३६३) केशिनामा तद्विनयो, यः प्रदेशी नरेश्वरम् । प्रबोध्य नास्तिकाद्धर्माज्जैनधर्मेऽध्यरोपयत् ॥१६॥ तच्छिश्याः समजायंत, श्री स्वयंप्रभसूरयः। विहरंतःक्रमणेयुः, श्री श्रीमाले कदापि ते ॥१७॥ तत्र यज्ञे यज्ञियाना, जीवाना हिंसकं नृपम् । प्रत्येषेधीत्तदा सरिः, सर्वजीवदयारतः॥१८॥ नवायुतगृहस्थान्नृन्, सार्ध क्षमापतिना तदा। जैनतत्त्वं संप्रदर्श्य, जैनधर्मेऽन्ववेशयत् ॥१॥ पद्मावत्या नगर्याञ्च, यज्ञस्यायोजनं श्रुतम् । प्रत्यरौत्सीत्तदा सरि, गत्वा तत्र महामतिः॥२०॥
राजाना गृहणञ्चैव, चत्वारिंशत् सहस्रकान् । बाण सहस्रसंख्याब्च, चक्रेऽहिंसावतानरान् ॥२१॥ उक्त प्रति श्रीमद् ज्ञानसुन्दरजी (देवगुप्तसरि) महाराज के पास में है। मैं उनसे ता० २५-६-५२ की जोधपुर में मिला था और उक्ताश उस पर से उद्धत किया था।
२-पद्मावती:(अ) इण्डियन एण्टिक्वेरी प्र० खण्ड के पृ०१४६ पर खजुराहा के ई० सन् १००१ के एक लेख में इस नगरी की समृद्धता
के विषय में अत्यन्त ही शोभायुक्त वाक्यों में लिखा गया है। (ब) दिगम्बर जैन-लेखों से प्रतीत होता है कि पद्मावती अथवा पद्मनगर दक्षिण के विजयनगर राज्य में एक समृद्ध नगर था।
परन्तु यहाँ वह पद्मावती असंगत है। (स) मालवराज्य में झांसी-आगरा लाईन पर दबरा स्टेशन से कुछ अन्तर पर 'पदमपवाँया' एक ग्राम है। मुनि जिनविजयजी
आदि का कहना है कि प्राचीन पद्मावती यही थी और यह नाम उसका बिगड़ा हुआ रूप है। उज्जयंती के प्राचीन राजाओं में राजा यशोधर का स्थान भी अति उच्च है। उसकी एक प्रशस्ति में उसको अनेक विशेषणों से अलंकृत किया गया है । 'पद्मावतीपुरपरमेश्वरः कनकगिरिनाथः' भी अनुकम से उसके विशेषण हैं । मरुप्रान्त के जालोर (जाबालीपुर) नगर का पर्वत जो आज भूगोल में सोनगिरि नाम से परिचित है, उसके सुवर्णगिरि और कनकगिरि भी नाम प्राचीन समय में रहे हैं के प्रमाण मिलते हैं । 'पद्मावतीपुरपरमेश्वरः कनकगिरिनाथः' के अनुक्रम पर विचार करने पर भी ऐसा ही प्रतीत होता है कि उक्त पद्मावती नगरी जालोर के समीपवर्ती प्रदेश में ही रही होगी।
मेरे अनुमान से पद्मावती पर्वलीपर्वत के उपजाऊ पूर्वी भाग में निवसित थी।