________________
१०]
:: प्राग्वाट - इतिहास ::
[ प्रथम
अपेक्षाकृत विशेष सरलता, सुविधा का अनुभव होता है। वैश्यवर्ण अथवा वर्ग में आज कई अलग २ ज्ञातियाँ हैं और फिर उन ज्ञातियों में भी जैन और वैदिक दोनों धर्मों का पालन होता है । परन्तु जो आशय निकालना था वह यह ही कि वैश्यसमाज को जैन-धर्म के पालन करने में विशेष सुविधा और सरलता पड़ती है । वैश्यसमाज में श्रीमाल, पोरवाल, श्रसवाल, अग्रवाल, बघेरवाल आदि कई ज्ञातियाँ प्रमुखतः मानी गई हैं और वे आज विद्यमान भी हैं । यहाँ पोरवाल अथवा प्राग्वाटज्ञाति का इतिहास लिखना है; अतः अब चरण सीधा उधर ही मोड़ना है । अब तक जो लिखा गया है, आप पाठक यह सोचते रहे होंगे कि जैनधर्म पर इतिहास की दृष्टि से कोई निबन्ध लिखा जा रहा है, परन्तु बात यह नहीं है । वैश्यसमाज की उत्पत्ति, विकास और आज के रूप पर जैनधर्म का अति गहरा और गम्भीर प्रभाव रहा है और है तथा वैश्य समाज का प्रमुख और बड़ा अंश जैनधर्मालुयायी है और इसका इतिहास जैनधर्म के महान् सेवकों का इतिहास है । दूसरा कारण प्रत्येक ज्ञाति किसी न किसी धर्म की पालक तो होती है और वह धर्म उसके उत्थान, पतन में भी साथ ही साथ रहता है; अतः किसी भी ज्ञाति का इतिहास उस ज्ञाति के धर्म के प्रवाह का इतिहास भी होता है । प्राग्वाट अथवा पोरवाल ज्ञाति का; जिसका इतिहास लिखा जा रहा है जैनधर्म से गहरा और घनिष्ट ही नहीं, उसके मूल से लगाकर आज तक के रूप से संबंध है और इसी लिये जैनधर्म के उपर जो कुछ लिखा गया है, उसकी पूर्ण सार्थकता अगले पृष्ठों में सिद्ध होगी ।
सम्मिलित होने फलतः उनकी जैनाचार्यों ने
भगवान् महावीर के श्री चतुर्विध-संघ में चारों वर्णों में से भावक और विकायें व्यक्तिगत व्रत लेकर सम्मिलित हुये थे, होने वाले वंशज उनके व्रतों एवं प्रतिज्ञाओं से बन्धे हुए नहीं थे। बनाकर जैनधर्म के पालन की एक परम्परा स्थापित करने का जो प्रयास किया, स्थायी श्रावकवर्ग अथवा समाज का जन्म हुआ । श्रावकवर्ग का व्यवसाय वाणिज्य है और अतः वह वैश्य कहा जाता है। उसकी जैनधर्म के अनुकूल संस्कृति है, जिसके कारण उसके वर्ग में जैनधर्म का पालन अधिक सरलता और सुविधा से किया जा सकता है ।
वाले उनके भक्त और अनुयायी संतानें अथवा उनके भविष्य में जैनधर्म को श्रावक के कुल का धर्म स्वभावतः उसके फलस्वरूप ही
जैनाचार्यों ने किस प्रकार और कब से इस प्रकार के श्रावकसमाज अथवा श्रावकवर्ग की स्थापना करने का प्रयास किया था, उसका विशद् परिचय प्राग्वाट श्रेष्ठिवर्ग की उत्पत्ति के लेख में मिल जायगा, अतः उसका यहाँ छेड़ना व्यर्थ नहीं, फिर भी अनावश्यक है । (वैदिक) वैश्यसमाज और (जैन) श्रावकसमाज का अन्तर तथा दोनों में समान रही हुई कई बातों का सम्बन्ध भी अगले पृष्ठों में ही अतः चर्चा जाना अधिक संगत प्रतीत होता है ।