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खण्ड ]
:: प्राग्वादशावकवर्ग की उत्पत्ति ::
प्राग्वा श्रावकवर्ग की उत्पत्ति
श्रीमत् स्वयंप्रभसूरि का अर्बुदप्रदेश में बिहार और उनके द्वारा जैनधर्म का प्रचार तथा श्रीमालपुर में और पद्मावतीनगरी में श्रीमाल श्रावकवर्ग और प्राग्वाट श्रावकवर्ग की उत्पत्ति
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जैसा पूर्व के पृष्ठों में लिखा जा चुका है कि भगवान महावीर के पश्चात् जैनाचार्यों ने जैनधर्म का ठोस एवं दूर-दूर तक प्रचार करना प्रारम्भ किया था । श्रीमालपुर भी उन्हीं दिनों में बस रहा था । सम्भवतः अर्बुदप्रदेश में भगवान् महावीर का भी पधारना नहीं हुआ था । अर्बुदप्रदेश का पूर्वभाग इन वर्षों में अधिक
श्रीमालपुर में श्रावकों की उत्पत्ति ख्यातिप्राप्त भी हो रहा था । जैनाचायों का ध्यान उधर आकर्षित हुआ । वि० सं० १३६३. में श्री कक्कमूरिविरचित उपकेशगच्छ - प्रबन्ध ( अभी वह मुनि श्री ज्ञानसुन्दरजी पास में हस्त लिखित अवस्था में ही है ) में लिखा है कि भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा के पाँचों पट्टधर श्री स्वयंप्रभसूरि ने अपने शिष्यों के सहित अर्बुदप्रदेश और श्रीमालपुर की ओर महावीर निर्वाण से ५७ (५२) वर्ष पश्चात् वि० सं० ४१३-४ पूर्व और ई० सन् ४७० - १ वर्ष पूर्व विहार किया ।
श्रीमालपुर का श्राज नाम भिन्नमाल अथवा भिल्लमाल है । श्रीमालपुराण में इस नगरी की समृद्धता के विषय में बहुत ही अतिशयपूर्ण लिखा गया है। फिर भी इतना तो अवश्य है कि इस नगरी में श्रेष्ठ पुरुष, उत्तम श्रेणी के जन, श्रीमंत अधिक संख्या में आकर बसे थे और नगरी प्रति लम्बी चौड़ी बसी थी। तब ही श्रीमालपुर नाम पड़ सका और कलियुग में श्री अर्थात् लक्ष्मीदेवी का क्रीडास्थल अथवा विलासस्थान कहा जा सका। नगरी में बसनेवालों में अधिक संख्या में ब्राह्मणकुल और वैश्यवर्ग था । जैसा पूर्व के पृष्ठों से सिद्ध है कि श्रीमालपुर
ब्रह्मशालासहस्राणि चत्वारि तद्विधा मठाः । पण्यविक्रयशालानामष्टसाहस्रिकं नृपः ॥२२॥ सभाकोदिषु सन्नद्धा द्युतिमन्मत्तवारणाः । श्रसन्माग्रसहस्रं च सभ्यानामुपवेशितुम् ।। २३ ।। साप्तभौमिकसौधानी लक्षमेकं महौजसाम् । तथा षष्टिसहस्राणि चतुःषष्ट्यधिकानि च ॥ २४ ॥ - श्रीमालपुराण (गुजराती अर्थ सहित ) ० १२ पृ० ८८ भवान् के निर्वाण के पश्चात् अहिंसाधर्म का प्रचार करना ही जेनाचाय्यों का प्रमुख उद्देश्य और कर्म रहा था और जनगणने भी उसको अति आनन्द से अपनायी थी, जिसके फलस्वरूप ही कुछ ही सौ वर्षों में कोटियों की संख्या में जैन बन गये थे।
तो क्या अभिनव बसी हुई भिन्नमालनगरी और अर्वलीप्रदेश के उपजाऊ पूर्वी भाग में जहाँ, ब्राह्मण पंडितों का पाखण्डपूर्ण प्रभाव जम रहा था और नित नत्र पशुबलीयुक्त यज्ञों का आयोजन हो रहा था, वहाँ कोई जैनाचार्य नहीं पहुँचे हों - कम मानने में आता है ।
भारत में श्राज तक जैन, वैष्णव जितने भी शिलालेख प्राप्त हुए हैं, उनमें या तो हितोपदेश है, या वस्तुनिर्माता की प्रशस्ति अथवा प्रतिष्ठाकर्ता आचार्य, श्रावक, राजा, राज-वंश और श्रावक - कुल, संवत्, ग्राम का नाम आदि के सहित उल्लेख है । परन्तु ऐसी घटनाओं का उल्लेख आज तक किसी भी प्राचीन से प्राचीन शिलालेख में भी देखने को प्राप्त नहीं हुआ । चरित्रों में, कथाओं में ऐसे वर्णन आते हैं. । उपकेशगच्छ-प्रबन्ध जो वि० सं० १३६३ में आचार्य कक्कसूरि द्वारा लिखी गई है उक्त घटना का उल्लेख देती है।