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खण्ड]
:: स्थायी श्रावक-समाज का निर्माण करने का प्रयास ::
वैसे तो संसार के प्रत्येक धर्म का सच्ची विधि से पालन करना सर्व साधारण जन के लिये सदा से ही कठिन रहा है, परन्तु जैनधर्म का पालन तो और भी कठिन है, क्य कि इसके इतने सूक्ष्म सिद्धान्त हैं तथा यह मानव की इच्छा, प्रवृत्ति, स्वभाव पर ऐसे-ऐसे प्रतिबन्ध कसता है कि थोड़ी भी वासना, आकांक्षा, निर्बलमानसवाला मनुष्य इसका पालन करने में असफल रह जाता है । जैनधर्म की कठोरता का अनुभव करके ही इसके पालन करने वालों को श्रमण और श्रावक दो दलों में विभाजित कर दिया है । वैसे तो ये दल सर्व ही धर्मों में भी देखने को प्रायः आते हैं । श्रमणसंस्था संसार का त्याग करके भगवती दीक्षा लेकर पूर्णतः धार्मिक, लोकोपकारी जीवन व्यतीत करने वाले साधु-साध्वी, उपाध्याय, प्राचार्यों आदि की है और श्रावकसंस्था गृहस्थजनों की है, जिनकी प्रत्येक क्रिया में कुछ न कुछ पाप का अंश रहता ही है और वह पाप का अंश उस क्रिया-कर्म में अपनी अनिवार्य उपस्थिति के कारण ही नगण्य अवश्य है, परन्तु पाप की कोटि में अवश्य गिना गया है। इस दृष्टि को लेकर श्रावक के बारह व्रत निश्चित किये गये हैं और उसको जीवननिर्वाह के हेतु आवश्यक सावध क्रिया-कर्म करने की छूट दी गई है । परन्तु यह छूट भी इतनी थोड़ी और इतनी संयम-यम-नियमबद्ध है कि सर्वसाधारण जन श्रावक के बारह व्रत पालन करना तो दूर की और बड़ी बात है, श्रावक का चौला भी नहीं पहन सकता है । भगवान् महावीर के समय में इतना कठिनतया पालन किया जाने वाला जैनधर्म इसलिये चारों वर्गों के द्वारा स्वीकृत किया जा सका था कि ब्राह्मणवाद के निरंकुश एवं सत्ताभोगी रूप से अति सर्व-साधारण जन तो क्या राजा, महाराजा, सज्जनवर्ग भी दुखित, पीड़ित हो उठा था और उससे अपना परित्राण चाह रहा था। दुखियों, दीनों को तो सहारा चाहिए, जैनधर्म ने उनको राह बताई, शरण दी। . ____ मौर्य सम्राट् संप्रति (प्रियदर्शिन्) के समय में जैनधर्म के अनुयायियों की संख्या कई करोड़ों की हो गई थी। जैन-धर्म के मानने वालों की भगवान के निर्वाण के पश्चात लगभग ढाई सौ वर्षों में इतनी बड़ी संख्या में पहुंच जाना सिद्ध करता है कि ग्रामवार, नगरवार एक-एक या सौ-सौ व्यक्ति अथवा घर जैन नहीं बने थे; वरन अधिकांशतः ग्राम के ग्राम और समूचे नगर के नगर और बाहर से आई हुई ज्ञातियों के दल के दल जैनधर्मी बने होंगे, तब ही इतने थोड़े से वर्षों में इतनी बड़ी संख्या में जैन पहुंच सके यह कार्य जैनाचार्यों के अथक परिश्रम, प्रखर तेज, संयमशील चारित्र, अद्वितीय पाण्डित्य, अद्भुत लोकोपकारदृष्टि और सत्य, अहिंसा के एकनिष्ठ पालन पर ही संभव हुआ । आज तो जैन-धर्म के मानने वाले जैनियों की संख्या कुछ लाखों में ही है और वे भी अधिकतम क्या, पूर्णतया वैश्यज्ञातीय हैं। इतर वर्ण अथवा ज्ञाति के पुरुष जैनधर्म को छोड़ कर धीरे २ पुनः अन्य धर्मावलंबी बनते रहे हैं और तब ही जैन इतनी थोड़ी संख्या में रह गये हैं। उक्त पंक्तियों से यह और सिद्ध हो जाता है कि राजवर्ग शासन सम्बन्धी कई एक झंझटों के कारण, अपनी सत्ताशील स्थिति के कारण, अपनी परिग्रहमयी वैभवपूर्ण. सुखमय अवस्था के कारण जैन श्रावक के व्रतों के पालन करने में पीछे पड गया
और इसी प्रकार बाहर से आई हुई ज्ञातियाँ, सेवा करने वाला दल और कृषकवर्ग भी अपनी कई प्रकार की अवदशा के कारण असमर्थ ही रहा और फलतः ये पुनः वैदिकधर्म के जागरण पर जैनधर्म को छोड़ कर अन्यमती बनते रहे, परन्तु जैनधर्म वैश्य-समाज में न्यूनाधिक संख्या एवं मात्रा में फिर भी टिक सका और टिक रहा है यह इस बात को सिद्ध करता है कि अन्य वर्गों, ज्ञातियों की अपेक्षा वैश्यवर्ण अथवा वर्ग को जैनधर्म के पालन में