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गुरुचिंतन २. यहाँ बन्ध और मोक्ष पर्यायों को कर्म की सापेक्षता से कहना व्यवहारनय कहा गया है। यद्यपि व्यवहारनय की अन्यत्र अनेक परिभाषाएँ मिलती हैं तथापि यहाँ पराश्रितो व्यवहारः अथवा व्यवहार नय स्वद्रव्यपरद्रव्य को उनके भावों को तथा कारण कार्यादि को किसी को किसी में मिलाकर निरूपण करता है - यह परिभाषा यहाँ घटित हो रही है। आत्मा कर्मों से बँधा है और कर्मों से छूटा है - ऐसा कहने में परद्रव्य की अपेक्षा आती है अतः द्वैत खड़ा हो जाता है।
३. यद्यपि अभेद आत्मा में बन्ध-मोक्ष का भेद करना भी द्वैत है, परन्तु यहाँ यह विवक्षा नहीं है। यहाँ तो कर्मों से बँधने या छूटने को द्वैत कहा गया है।
४. भगवान आत्मा स्वयं अपनी योग्यता से बँधता या मुक्त होता है। परमाणु की स्निग्ध और रूक्षता के समान आत्मा में भी बँधने या छूटने की योग्यता है उसे बन्ध या मुक्ति में कर्म की अपेक्षा नहीं है। इस प्रकार बन्ध-मोक्ष को स्वाधीन देखना निश्चयनय है। प्रवचनसार गाथा १६ में आत्मा को संसार या मुक्त अवस्था में स्वयंभू कहा है।
५. बन्ध-मोक्ष में आत्मा स्वाधीन है - इस कथन में उसकी पर्यायों की स्वतन्त्रता की घोषणा की गई है। यहाँ दृष्टि के विषयभूत त्रिकाली ध्रुव आत्मा की बात नहीं है। इस सम्बन्ध में पूज्य गुरुदेवश्री द्वारा नयप्रज्ञापन (गुजराती) पृष्ठ ३१२ पर व्यक्त किए गए विचार दृष्टव्य
“यहाँ जो यह कहा जा रहा है कि निश्चयनय से आत्मा बंधमोक्ष में अद्वैत का अनुशरण करनेवाला है, उसमें आत्मा का त्रिकाली स्वभाव जो कि दृष्टि का विषय है, वह नहीं लेना। यहाँ तो बंध-मोक्ष पर्याय में अकेला आत्मा ही परिणमता है - इसप्रकार अकेले आत्मा की अपेक्षा बंध-मोक्ष पर्याय को लक्ष्य में लेने की बात है।
बंधपर्याय में भी अकेला आत्मा परिणमित होता है और मोक्षपर्याय