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गुरुचिंतन
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में भी अकेला आत्मा ही परिणमित होता है - इस प्रकार बंध-मोक्ष पर्याय निरपेक्ष है; इसप्रकार का निश्चय आत्मा बंध एवं मोक्ष में अद्वैत का अनुसरण करनेवाला है; इसप्रकार का भगवान आत्मा में एक धर्म
६. यद्यपि यहाँ बंध और मोक्ष पर्याय में द्वैत और अद्वैत धर्म घटित किए हैं तथापि जीवादि सातों तत्त्वों में पर की सापेक्षता से द्वैतपना और पर की निरपेक्षता से अद्वैतपना घटित हो सकता है।
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अशुद्धनय और शुद्धनय “आत्मद्रव्य अशुद्धनय से घट और रामपात्र से विशिष्ट मिट्टी मात्र के समान सोपाधि स्वभाववाला है और शुद्धनय से केवल मिट्टी मात्र के समान निरुपाधि स्वभाववाला है।"
१. भगवान आत्मा में औपाधिक (विकारी) भाव रूप परिणमित होने की योग्यता है जिसे अशुद्ध धर्म कहते हैं और विकारी भावरूप परिणमन होने पर भी सदा एकरूप रहने की योग्यता है जिसे शुद्धधर्म कहते हैं। इन दोनों धर्मों को जाननेवाले ज्ञान अशुद्धनय और शुद्धनय
२. अशुद्धधर्म पर्यायगत योग्यता है जिसे क्षणिक उपादान की योग्यता कहा जा सकता है। यह योग्यता ही आत्मा के विकारी परिणमन को द्रव्यकर्मादि पर-पदार्थों से निरपेक्ष और स्वतन्त्र सिद्ध करती है। यदि पर्याय में विकारी भावरूप परिणमने की योग्यता न होती तो अनन्त परपदार्थ भी आत्मा में विकार उत्पन्न नहीं करा सकते।
३. रागादि भाव आत्मा का त्रिकाली स्वभाव न होने पर भी वे पर के कारण उत्पन्न नहीं होते। आत्मा में उन्हें धारण करने की योग्यता है अर्थात् अशुद्धनय से आत्मा का ऐसा ही स्वभाव है। इस सम्बन्ध में