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गुरुचिंतन (गुजराती) पृष्ठ २७५ पर पूज्य गुरुदेवश्री द्वारा किया गया स्पष्टीकरण इसप्रकार है -
“यहाँ प्रधानता शब्द का प्रयोग किया गया है, जो यह बताता है कि गौणरूप से दूसरा कारण भी विद्यमान है। क्रियानय में अनुष्ठान की प्रधानता कही है अर्थात् शुभभाव की प्रधानता कही है, उसमें से भी यही अर्थ निकलता है कि गौणरूप से उसीसमय सम्यग्ज्ञान रूप विवेक भी विद्यमान है।
शुभराग की प्रधानता से सिद्धि होती है - जब क्रियानय से इसप्रकार कहा जाता है, तब उसीसमय यह ज्ञान भी साथ में रहता है कि उसी काल में गौणरूप में अन्तर में शुद्धता भी विद्यमान है। ऐसा ज्ञान अन्तर में रहे, तभी क्रियानय सच्चा कहा जाता है।"
(४४-४५)
व्यवहारनय और निश्चयनय ___ "आत्मद्रव्य व्यवहारनय से अन्य परमाणु के साथ बंधने वाले एवं उससे छूटने वाले परमाणु के समान बन्ध और मोक्ष में द्वैत का अनुसरण करने वाला है और निश्चयनय से बन्ध
और मोक्ष के योग्य स्निग्ध और रूक्ष गुण रूप से परिणित बध्यमान और मुच्यमान परमाणु के समान बन्ध और मोक्ष में अद्वैत का अनुसरण करने वाला है।"
१. भगवान आत्मा में एक ऐसी योग्यता है जिससे उसकी बन्ध या मोक्ष पर्यायों को कर्म की सापेक्षता से देखा जा सके। इस योग्यता को व्यवहार धर्म कहते हैं और इसके विरुद्ध एक ऐसी योग्यता भी है जिससे उसकी बन्ध-मोक्ष पर्यायों को कर्म से निरपेक्ष देखा जा सके। इस योग्यता को निश्चय धर्म कहते हैं। इन दोनों धर्मों को जानने वाला ज्ञान व्यवहारनय और निश्चयनय कहलाता है।