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________________ 56 गुरुचिंतन में उत्पन्न होनेवाले रागादिभावों का कर्ता है और अकर्तृनय से उनका कर्ता नहीं है, मात्र साक्षीभाव से देखने-जाननेवाला है। इसीप्रकार भोर्तृनय से अपने में उत्पन्न सुख-दुःख का भोक्ता है और अभोक्तृनय से अपने में उत्पन्न सुख-दुःख का भी भोक्ता नहीं है, मात्र साक्षीभाव से जाननेदेखनेवाला है।" (४२-४३) क्रियानय और ज्ञाननय “आत्मद्रव्य क्रियानय से खम्भे से टकराने से सिर फूट जाने पर दृष्टि उत्पन्न होकर, जिसे निधान मिल गया है - ऐसे अन्धे के समान अनुष्ठान की प्रधानता से सधनेवाली सिद्धिवाला है और ज्ञाननय से मुट्ठी भर चने देकर चिन्तामणि रत्न खरीदनेवाले घर के कोने में बैठे हुए व्यापारी के समान, विवेक की प्रधानता से सधनेवाली सिद्धिवाला है।" १. भगवान आत्मा में अनुष्ठानपूर्वक कार्यसिद्धि की योग्यता है, जिसे क्रिया धर्म कहते है और ज्ञान द्वारा कार्यसिद्धि की योग्यता है, जिसे ज्ञान धर्म कहते हैं। इन दोनों को जाननेवाला ज्ञान क्रियानय और ज्ञाननय कहलाता है। २. यहाँ क्रिया से आशय जड़ की क्रिया से नहीं है। यहाँ साधकदशा में होनेवाले शुभभाव को क्रिया कहा गया है, क्योंकि वे प्रायः व्रतशील-संयमादि बाह्य क्रिया में निमित्त होते हैं। इसी प्रकार ज्ञान से आशय रत्नत्रय रूप शुद्ध परिणति से है, मात्र बहिर्लक्ष्यी क्षयोपशम से नहीं। ३. किसी को शुभभाव से मोक्ष होता है और किसी को रत्नत्रय रूप शुद्धभाव से - ऐसा नहीं है। साधक को निश्चय रत्नत्रय के साथ यथायोग्य शुभभाव होते ही हैं। अतः क्रियानय से अनुष्ठान (शुभभाव एवं महाव्रतादि क्रिया) की प्रधानता से कथन होता है। इस सम्बन्ध में नयप्रज्ञापन
SR No.007255
Book TitleGuru Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMumukshuz of North America
PublisherMumukshuz of North America
Publication Year2013
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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