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________________ गुरुचिंतन " पर्याय में राग-द्वेष होने से जितनी पराधीनता है, उसका ज्ञान धर्मी जीव को रहता है, पर उसी समय अन्तर्दृष्टि में आत्मा की स्वाधीन प्रभुता का ज्ञान भी रहता है, क्योंकि ईश्वरनय के समय अनीश्वरनय की अपेक्षा भी साथ ही है । जहाँ अपने द्रव्यस्वभाव की त्रिकाली ईश्वरता से चूके बिना मात्र पर्याय की पराधीनता सम्बन्धी ईश्वरता पर को देता है, वहाँ तो ईश्वरनय सच्चा है; परन्तु जो स्वभाव की ईश्वरता को भूलकर मात्र पर को ही ईश्वरता प्रदान करे, वह ईश्वरनय भी सच्चा नहीं है, वह तो पर्याय में ही मूढ़ होने से मिथ्यादृष्टि है। " 53 (३६-३७) गुणीनय और अगुणीनय " आत्मद्रव्य गुणीनय से शिक्षक द्वारा शिक्षा प्राप्त करनेवाले कुमार के समान गुणग्राही है, और अगुणीनय से शिक्षक के द्वारा शिक्षा प्राप्त करने वाले कुमार को देखनेवाले प्रेक्षक पुरुष के समान केवल साक्षी है। "" १. भगवान आत्मा में उपदेश ग्रहण करने की योग्यता है, जिसे गुणधर्म कहते हैं और उपदेश से प्रभावित न होकर उसे मात्र जानने की योग्यता है, जिसे अगुणीधर्म कहा गया है। इन दोनों धर्मों को जाननेवाला ज्ञान गुणीनय और अगुणीनय कहा गया है। २. ये दोनों धर्म भी उपदेश ग्रहण करने अथवा न करने की योग्यता बताकर आत्मा की पर्याय की स्वतन्त्रता की घोषणा करते हैं। हम किसी का उपदेश मानें या ना मानें इसके लिए हम स्वतन्त्र हैं, कोई हमें बाध्य नहीं कर सकता । (३८-३९) कर्तृनय और अकर्तृनय " आत्मद्रव्य कर्तृनय से रंगरेज के समान रागादि परिणाम का कर्ता है और अकर्तृनय से अपने कार्य में प्रवृत्त रंगरेज
SR No.007255
Book TitleGuru Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMumukshuz of North America
PublisherMumukshuz of North America
Publication Year2013
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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