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________________ 52 गुरुचिंतन १. आत्मा में स्वयं पराधीनता भोगने की योग्यता है जिसे ईश्वर धर्म कहा जाता है और उसमें स्वयं स्वाधीनता भोगने की योग्यता है जिसे अनीश्वर धर्म कहते हैं। इन दोनों धर्मों को जाननेवाले ज्ञान को ईश्वरनय और अनीश्वरनय कहते हैं। २. यहाँ ईश्वर धर्म का प्रयोग बड़ा विचित्र और दुर्लभ लगता है। ईश्वर शब्द का अर्थ तो ऐश्वर्य को भोगनेवाला अथवा सर्वशक्तिमान स्वाधीन सुपर पावर के रूप में जाना जाता है, परन्तु यहाँ उसे पराधीनता भोगने की योग्यता के रूप में कहा जा रहा है। इसमें यही दृष्टिकोण हो सकता है कि यह जीव अपने स्वाधीन स्वभाव को भूलकर पराधीनता भोगता है, अर्थात् पर-पदार्थ को अपना ईश्वर बना लेता है अतः यह योग्यता ईश्वर धर्म कही गई है। ३. यह बात ध्यान देने योग्य है कि आत्मा में स्वयं पसधीनता भोगने की योग्यता है जिसके कारण वह पराधीनता भोगने में स्वतन्त्र है। धर्मास्तिकाय आदि अन्य द्रव्यों में ऐसी योग्यता नहीं है। ४. वस्तुतः कोई द्रव्य पराधीन हो नहीं सकता। आत्मा भी पराधीन नहीं होता, अपितु विकारी परिणमन में पराधीनता भोगता है। ५. पराधीन होने की योग्यता से सिद्ध होता है कि द्रव्यकर्म जबर्दस्ती आत्मा को विकार नहीं कराते उसमें स्वयं पराधीन होकर विकार करने की योग्यता है। ६. कैसा भी संयोग हो, कैसा भी कर्मोदय हो, आत्मा अपने स्वरूप का लक्ष्य करके अतीन्द्रिय आनन्द भोगने में स्वतन्त्र हैं। वह स्वयं ही अपना ईश्वर है, अन्य कोई उसका ईश्वर नहीं है, इसलिए इस योग्यता को अनीश्वर धर्म कहा गया है। ७. ईश्वर और अनीश्वर ज्ञानी जीव पर किस प्रकार लागू होते हैं, इसका बहुत सुन्दर स्पष्टीकरण पूज्य गुरुदेव नयप्रज्ञापन (गुजराती) पृष्ठ २३३ पर इस प्रकार करते हैं :
SR No.007255
Book TitleGuru Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMumukshuz of North America
PublisherMumukshuz of North America
Publication Year2013
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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