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________________ 54 गुरुचिंतन को देखने वाले पुरुष की भाँति केवल साक्षी है।" १. आत्मा अपने रागादि परिणामों को स्वयं अपनी योग्यता से करे - ऐसी योग्यता वाला है, जिसे कर्तृधर्म कहते हैं और उसी समय उसका स्वभाव रागादिरूप नहीं होने की योग्यता भी रखता है जिसे अकर्तृधर्म कहते हैं। इन दोनों धर्मों को जाननेवाला ज्ञान कर्तृनय और अकर्तृनय कहलाता है। २. समयसार में रागादि में एकत्व बुद्धि को कर्तृत्व कहा है, परन्तु यहाँ “यः परिणमति स कर्ता" इस परिभाषा के अनुसार ज्ञानी को भी राग का कर्ता बताया जा रहा है। भेदज्ञान होने से वह अकर्ता तो है ही। अतः यह कहा जा सकता है कि ज्ञानी दृष्टि की अपेक्षा रागादि भावों का अकर्ता है और ज्ञान की अपेक्षा उनका कर्ता। इस प्रकार भिन्न-भिन्न अपेक्षाओं से दोनो धर्म एक साथ सिद्ध होते हैं। ३. अज्ञानी को भी भिन्न-भिन्न अपेक्षाओं से कर्ता-अकर्ता देखा जा सकता है। यद्यपि अज्ञानी को नय नहीं होते तथापि ज्ञानी उसे नयदृष्टि से जानता हैं। रागादि रूप परिणमता है ही, एकत्व बुद्धि भी कर रहा है। अतः श्रद्धा-ज्ञान दोनो अपेक्षाओं से रागादि का कर्ता है, किन्तु उसी समय पर अशुद्धनय की दृष्टि से वह रागादि को छूता हुआ भी नहीं है, अतः अकर्ता है। ४. समयसार, गाथा ३२० में आत्मा को आँख के समान रागादि सभी पर्यायों का अकर्ता अथवा मात्र ज्ञाता कहा है, यह कथन भिन्नभिन्न अपेक्षाओं से ज्ञानी-अज्ञानी सभी जीवों पर लागू होता है। ५. अगुणीनय में आत्मा को मात्र उपदेश का साक्षी कहा था। यहाँ अपने में होने वाले रागादि का साक्षी कहा गया है और अभोक्तृत्वनय से अपने सुख-दुख का साक्षी कहा गया है। उसका स्वभाव तो सभी पदार्थों को साक्षी भाव से मात्र जानने का ही है।
SR No.007255
Book TitleGuru Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMumukshuz of North America
PublisherMumukshuz of North America
Publication Year2013
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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